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चुनावी नतीजे आते ही कमलनाथ सरकार पर क्यों है ख़तरा? – नज़रिया

कई बार तो अल्पमत वाली या मिली-जुली सरकारें कामकाज के लिहाज से पूर्ण बहुमत वाली सरकारों से भी बेहतर साबित होती हैं. वैसे किसी भी चुनाव के नतीजों में जब त्रिशंकु सदन की स्थिति उभरती है और मिली-जुली सरकारें बनती हैं तो राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने का अंदेशा हमेशा बना रहता है.

ऐसी स्थिति में सरकार चलाना राजनीतिक प्रबंधन और चतुराई पर निर्भर करता है.

लेकिन ऐसी सरकारों को बनाने, बचाने और गिराने के खेल में अक्सर राजनीति अपने निकृष्टतम रूप में सामने आती है. ज़्यादातर मामलों में यह स्थिति सदन भंग होने या राष्ट्रपति शासन लागू होने तक जारी रहती है. ऐसा कई बार हुआ है और अभी भी हो रहा है.

मध्य प्रदेश की मिली जुली सरकार

इस समय देश के कई राज्यों में मिली-जुली सरकारें चल रही है, जिन पर अस्थिरता की तलवार लटक रही है. मध्य प्रदेश भी ऐसे ही राज्यों में शुमार हैं, जहां कांग्रेस की सरकार कुछ छोटी पार्टियों और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है.

यह वजह है कि मध्य प्रदेश सरकार को गिराने की कोशिशों में वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा पहले दिन से जुटी हुई है और इस समय भाजपा ने अपनी कवायदें तेज कर दी हैं.

एक फ़िल्मी गीत की तर्ज़ पर कहा जाए तो मध्य प्रदेश में ‘यह तो होना ही था!’ लगातार 15 सालों तक सत्ता में रही भाजपा की ओर से जिस तरह पांच महीने पुरानी कांग्रेस की सरकार के अल्पमत में होने दावा करते हुए उसकी विदाई का गीत गुनगुनाया जा रहा है, वह ज़रा भी हैरान करने वाला नहीं है.

लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में अभी दो दिन का वक़्त बाकी है लेकिन एग्ज़िट पोल्स के अनुमानों को ही वास्तविक नतीजे मानकर चल रही भाजपा एक बार फिर कांग्रेस सरकार के अल्पमत में होने का दावा करते हुए राज्यपाल से विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को अपना बहुमत साबित करने का निर्देश देने की मांग कर रही है.

दूसरी ओर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भाजपा की इस मांग की खिल्ली उड़ाते हुए कहा है कि उनकी सरकार को कोई ख़तरा नहीं है और भाजपा नेताओं को किसी भी तरह के सपने देखने का हक़ है.

दरअसल, मध्य प्रदेश की पांच महीने पुरानी कांग्रेस सरकार पर ख़तरे के बादल उसी दिन से मंडराना शुरू हो गए थे, जिस दिन कमलनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

दिसंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में राज्य की 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 114 सीटें हासिल हुई थीं जो बहुमत के आंकड़े से दो कम थी. दूसरी ओर भाजपा को 109 सीटें मिली थीं.

चुनाव नतीजे आते ही बहुजन समाज पार्टी के दो, समाजवादी पार्टी के एक और चार निर्दलीय विधायकों ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया था. इस प्रकार कांग्रेस कुल 121 विधायकों के समर्थन के बूते सरकार बनाने में कामयाब रही थी.

ऐसा नहीं है कि भाजपा ने अपना बहुमत न होते हुए भी उस वक़्त सरकार बनाने की कोशिश न की हो. उसकी ओर से न सिर्फ़ निर्दलीय विधायकों को साधने की कोशिशें की गई थीं बल्कि कांग्रेस के भी कुछ विधायकों से संपर्क किया गया था.

योजना यह थी कि निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल कर और कांग्रेस के कुछ विधायकों से इस्तीफा दिलवा कर विधानसभा की कुल प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर अपने बहुमत का इंतजाम कर लिया जाए.

उस समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भोपाल यात्रा को भी इसी सिलसिले में देखा गया था. लेकिन भाजपा के रणनीतिकार अपनी कोशिशों को अमली-जामा नहीं पहना सके थे.

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