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पांच राज्यों के चुनाव 2019 का सेमीफाइनल क्यों हैं?

सिद्धांततः

हर चुनाव अलग होता है और भारत जैसे विविधता भरे देश में एक चुनाव को दूसरे का सेमीफाइनल बताना मीडिया का सरलीकरण भर हो सकता है. इसके अलावा ऐसे अनुभव भी रहे हैं जब राज्यों में हारने वाली पार्टियां केंद्र में जीत गई हों. वर्ष 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नतीजे अपने पक्ष में देखकर ही अटल सरकार ने समय से पहले लोकसभा चुनाव कराए और हार गई.

लेकिन कई बार सरलीकरण भी कुछ बातें समझने-समझाने में हमारे काम आते हैं. मंगलवार को पांच राज्यों के जो चुनावी नतीजे आने वाले हैं, उनको लेकर अचानक सेमीफाइनल-फाइनल का खेल बदलता दिख रहा है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह को कहना पड़ रहा है कि फाइनल सिर्फ फाइनल होता है, उसका सेमीफाइनल से वास्ता नहीं होता. यही बात दूसरे बीजेपी नेता भी कह रहे हैं.

लेकिन यह राजनीतिक समझ बीजेपी को अनायास क्यों आ गई? क्या उसे डर लग रहा है कि वह इन चुनावों में हार जाएगी? हार भी जाए तो क्या होगा? आखिर उसके पास यह बहुत आसान व्याख्या सुलभ है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 साल उसने राज किया है और इतने लंबे समय के बाद जनता की ऊब या शिकायत एक स्वाभाविक बात होती है. इसी तरह वह कह सकती है कि राजस्थान की जनता हर पांच साल पर सत्ता की रोटी पलट देती है और इसलिए इसमें कुछ अजूबा नहीं है.

ऐसा कहने की मुश्किलें दो हैं. इस पूरे पांच साल में बीजेपी सारे चुनाव कुछ इस तरह लड़ती रही है जैसे वह 2019 की तैयारी कर रही हो. इन तमाम चुनावों में प्रधानमंत्री सहित बीजेपी के दूसरे दिग्गज मंत्री और पार्टी अध्यक्ष सहित तमाम बड़े नेता अपनी पूरी ताकत आजमाते रहे हैं. नतीजा यह हुआ है कि चुनाव भले बीजेपी ने जीते हों, लेकिन वह जीत सीधे प्रधानमंत्री मोदी के खाते में गई है. राजस्थान और मध्य प्रदेश में किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाने पर कांग्रेस पर ताना कसने वाली बीजेपी भूल गई कि यूपी और उत्तराखंड जैसे चुनाव भी उसने प्रधानमंत्री को सामने रख कर लड़े. यूपी में तो जिस शख़्स ने चुनाव लड़ा नहीं, उसे मुख्यमंत्री बनाया गया.

इन चुनावों में बीजेपी के सामने चेहरे का संकट नहीं था तो इसलिए कि इन राज्यों में उसके अपने मुख्यमंत्री रहे. इनके होने के बावजूद पूरे चुनाव पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छाया रही. इत्तिफ़ाक से कांग्रेस ने भी सारी लड़ाई मोदी के व्यक्तित्व को निशाना बना कर लड़ी. राहुल जगह-जगह राफेल का मुद्दा उठाते रहे और उन्होंने अपने स्तर पर चोर और चौकीदार का ऐसा मुहावरा चला दिया जिसे बचते-बचाते भी मीडिया इस्तेमाल करने पर मजबूर हो गया.

यही नहीं, पहली बार इन चार सालों में केंद्र सरकार से जनता की ऊब और निराशा कई स्तरों पर प्रगट हुई है. यह अनायास नहीं है कि नतीजों के एक दिन पहले एनडीए के सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा बाहर आ गए और उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर आरएसएस का एजेंडा लागू करने का आरोप लगाया. जैसे यह काफ़ी न हो, इसके पहले केंद्र सरकार के करीबी रहे लोग ही अब नोटबंदी की आलोचना करते दिख रहे हैं. धीरे-धीरे इस मसले पर आम लोगों की हताशा भी सामने आ रही है.

दिलचस्प यह है कि इसी दौरान बीजेपी और उसके संगी-सहयोगी अचानक विकास को पीछे ठेल कर राम मंदिर को एजेंडा बनाने में जुट गए हैं. पिछले कुछ दिनों में आरएसएस और वीएचपी जिस तरह राम मंदिर पर कानून लाने का दबाव बना रहे हैं और जिस तरह बीजेपी इससे इनकार कर रही है, उसके अर्थ बेहद स्पष्ट हैं. यह साफ है कि बीजेपी खुद को संवैधानिक दायरे में रखकर ही सारी लड़ाई लड़ती दिखना चाहती है और उसके संगी-साथी अपने समर्थकों को याद दिलाना नहीं भूलते कि देर-सबेर जैसे भी हो, मंदिर बीजेपी की ही मदद से बनेगा. इस राजनीति का खतरनाक पहलू वह सांप्रदायिकता है जो गोकशी से लेकर तमाम दूसरे मुद्दों तक सिर उठाती दिख रही है.

पिछले दिनों बुलंदशहर में जो कुछ हुआ और उसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भीड़ की हिंसा न मान कर जिस तरह हादसा करार दिया, उससे भी साफ है कि वे अपने लोगों को यह आश्वस्ति देना चाहते हैं कि उनकी सारी अतियों को पुलिस-प्रशासन को झेलना होगा. कहने को यह यूपी का मुद्दा है, लेकिन याद कर सकते हैं कि इन राज्यों में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी उम्मीदवारों में मोदी के अलावा जिस बीजेपी नेता की सबसे ज्यादा मांग रही, वे योगी आदित्यनाथ ही थे.

तो पांच राज्यों के ये चुनाव लड़े राष्ट्रीय मुद्दों पर ही जा रहे हैं. दरअसल ये चुनाव अपने नतीजों से ज़्यादा अपने चुनाव-प्रचार के दौरान के राजनीतिक मुद्दों की वजह से 2019 का सेमीफाइनल हैं. अगर इन चुनावों में कांग्रेस जीतती है तो फिर वह बीजेपी के लगातार बड़े होते किले में बड़ी दरार होगी. बीजेपी कांग्रेसविहीन भारत का जो इरादा जताती रही है, उसे देश के दो विशालकाय सूबों में कांग्रेस की जीत बिल्कुल मुंह चिढ़ाने वाली साबित होगी. इसके अलावा कांग्रेस कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से 2019 की लड़ाई लड़ सकेगी और गैरबीजेपीवाद की राजनीति को एक मजबूत स्तंभ मिल जाएगा. 2019 से पहले जो गठबंधन राजनीति तमाम अगर-मगर के बाद भी जारी है, वह कुछ ज्यादा तेज हो जाएगी.

लेकिन अगर इन चुनावों में इतने सारे मुद्दों और प्रयासों के बावजूद बीजेपी जीत गई तो यह भी फाइनल का संकेत होगा. तब वह बहुत आश्वस्ति के साथ 2019 का चुनाव अपने नाम कर सकती है. बेशक, तब गठबंधन को लेकर अब तक हिचक रही ताकतें अंततः एक होने को मजबूर होंगी, लेकिन तब बीजेपी अपने प्रचार को ही नहीं, हाल के दिनों में अर्जित अपनी राजनीतिक समझ को भी बिल्कुल आसमान पर पहुंचा देगी. तब गौरक्षा के नाम पर, लव जेहाद के नाम पर, पाक विरोध के नाम पर जो कुछ संशय उसके भीतर हैं, वे खत्म हो चुके होंगे और वह अपने वैचारिक विरोधियों को कहीं ज्यादा जोरशोर से देशद्रोही बताने में जुट सकती है. पांच राज्यों के चुनाव का असली महत्व यही है- वह सभी राजनीतिक दलों को यह संदेश देगा कि वे इस देश की लोकतांत्रिक अपरिहार्यता का सम्मान करें और इसी के अनुकूल अपनी राजनीति की दिशा तय करें.

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