हमारा समाज बेशक आज मार्डन हो गया है। समाज के लोग यही कहते है कि हमने आज तक बच्चों में कोई फर्क नहीं किया और हमारे लिए तो बेटा-बेटी एक समान हैं। मगर, वास्तविकता कुछ और ही होती है। लडक़ों के मामले में हम बहुत खुले विचार रखते हैं। मगर, लडक़ी की बात आते ही कहीं न कहीं हमारी सोच थोड़ी सिकुड़ जाती है, इसी के चलते सृष्टि को आगे बढ़ाने वाली ऊर्जा और शक्ति को हम कोख में ही समाप्त कर देते हैं।
शायद इसलिए देश और समाज में लड़कियों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए हर साल 24 जनवरी को नेशनल गर्ल चाइल्ड डे यानी राष्ट्रीय बालिका शिशु दिवस मनाया जाता है। 2008 में इसकी शुरुआत की गई। देश में लड़कियों को कई तरह के अधिकार प्राप्त हैं, जिससे उनका जीवन स्तर बेहतर बन सके। वहीं देश में बेटियों की स्थिति में सुधार जरूर हुआ है, लेकिन यह संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती।
यह सुनिश्चित किया जाए कि भारतीय समाज में हर बालिका शिशु को उचित सम्मान और महत्व मिले और देश में हर बालिका शिशु को उसके सभी मानव अधिकार मिलें। दरअसल, कन्या भ्रूण हत्या आज देश के सामने एक जटिल समस्या का रूप धारण करती जा रही है। यही वजह है कि छह साल से कम उम्र की लड़कियों की तादाद पिछले पांच दशकों में काफी कम हुई है।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट के 2011 में किए रिसर्च के मुताबिक पिछले तीन दशक में 1.2 करोड़ लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया गया था। देश में कई जगह लडक़ी और लडक़े के अनुपात में बहुत ही फर्क है। कई गांव और शहर ऐसे भी हैं जहां शादी के लिए लडक़ों को लड़कियां नहीं मिलती। इसी के चलते देश में सर्वाधिक निम्न लैंगिक अनुपात से जूझ रहे लोकसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों को अविवाहित पुरुष मतदाताओं की ओर से एक अनोखी मांग का सामना करना पड़ता है। ये युवा उम्मीदवारों से बिजली, पानी या नौकरी नहीं बल्कि बहू की मांग करते देखे जाते हैं। ये युवा नेताओं से यही कहते हैं कि ‘बहू दिलाओ और वोट पाओ’।
दरअसल, इस नारे से यह प्रयास किया जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या की ओर राजनीतिक दलों का ध्यान खींचा जाए। इस मुद्दे को पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र में भी शामिल किया जाए। यही वजह कि देश के राज्यों की सरकारें अपने क्षेत्रों में कन्या बचाओ, कन्या पढ़ाओ जैसी योजनाओं को चला रही हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र के लैंगिक समानता सूचकांक में भारत बच्चों की मौत के दर में लैंगिक फर्क के आधार पर सबसे खराब देशों में है। भारत की हालत पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी गई गुजरी है। यहां उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ़ समेत नौ राज्यों में लडक़ों के मुकाबले लड़कियों की तादाद तेजी से घट रही है। इसकी वजह भ्रूण हत्या तो है ही, पारिवारिक उपेक्षा और लडक़ी के पालन-पोषण में लापरवाही भी कम जिम्मेदार नहीं है। इसी के चलते ज्यादातर परिवारों में बेटियों की परवरिश पर बेटों की तरह ध्यान नहीं दिया जाता। वे कुपोषण की शिकार हो जाती हैं और चार साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनमें से ज्यादातर विभिन्न बीमारियों की चपेट में आकर मौत के मुंह में समा जाती हैं।
दूसरी ओर लड़कियों की संख्या में कमी आने की अहम वजह अल्ट्रासाउंड केंद्र भी हैं। भेदभाव का आलम यह है कि एक सर्वे के अनुसार 74 से 78 प्रतिशत तक ग्रामीण और शहरी औरतें लडक़ी की बजाय लडक़े को जन्म देना चाहती हैं, जबकि 44 प्रतिशत लड़कियों की चिकित्सा नहीं करवाई जाती और 77 प्रतिशत लडक़ों के मुकाबले 51 प्रतिशत लड़कियों को ही वैक्सीन दी जाती है। इसके अलावा न्यूमोनिया, डायरिया जैसी बीमारी के कारण मरने वाली लड़कियों की तादाद हर साल काफी बढ़ रही है।
भेदभाव करने वाले समझें कि कितनी ही मुश्किल हो, लड़कियां सच्ची फाइटर होती हैं। बोइंग, एयरबस यहां तक कि लड़ाकू विमान भी वे बड़ी आसानी से उड़ा रही हैं। इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक जागरूकता जरूरी है। इसलिए आज कई सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएं ‘बेटी बचाओ’ की सार्थक मुहिम में शामिल होकर एक सभ्य एवं सुसंस्कारित समाज की स्थापना की दिशा में काम कर रहीं हैं।
बेशक समाज में बदलाव तभी आएगा जब हम स्वयं की सोच में बदलाव लाएं। यह काम हमें अपने परिवार से ही शुरू करना होगा। हमें अपनी बेटियों पर गर्व करना होगा और उन्हें भी वहीं प्यार, वही अधिकार, वही सुविधाएं देनी होंगी जो हम अपने बेटों को देते हैं। आपके इसी विश्वास के चलते बेटियां अपनी कड़ी मेहनत और कुछ कर दिखाने का जज्बे से यह साबित कर देंगी कि वे भी लडक़ों से कम नहीं हैं।
- रमा गौतम