मुकेश तिवारी, ग्वालियर। शताब्दी की और अग्रसर संगीत कुंभ तानसेन समारोह दुनिया का ऐसा अनूठा संगीत समारोह हैं जो सत्ता और समाज के दशक दर दशक तेजी से बदलते प्रतिमानों के बावजूद आज भी अपने गरिमापूर्ण आयोजन के साथ संगीत तीर्थ ऐतिहासिक शहर को पूर्णतः प्रदान कर रहा हैं।नौ दशकों से अधिक के इस सफर में इस समारोह ने तवायफों के घुघरूओं की झंकर से लेकर धुरंधर गान मनीषियों के आलाप तक कितने ही रंग देखे हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत में तानसेन का नाम एक किंवदंती हैं । अभिलेखों से ज्यादा कला रसिकों और विद्धत समुदाय के मानस में उनका मान हैं ,जबकि लोगों ने उनके संगीत के जादू को देखा सुना नहीं। पांच सौ बर्षो का अन्तराल एक बडा अंतराल होता है लेकिन हिन्दुस्तान की श्रुति परम्परा का कमाल है कि आज भी तानसेन का चमत्कार जनमानस में कम कतई नहीं हुआ बल्कि बढा ही हैंा
कालजयी संगीतकार तानसेन आज संगीत के पर्याय के रूप में जाने -माने जाते हैं। जो श्रद्धा और विश्वास उनके नाम के प्रति कायम हैं। बहुत कम विभूतियों को यह सौभाग्य प्राप्त हैं। हालकि संगीत सम्राट तानसेन ऐसे ही महान नही बने उन्होनंे शास्त्रीय संगीत कों बढावा देने के लिए हमेशा प्रयास किए ।14-15 वी शताब्दी में उन्होनें बेटों के साथ साथ बेटी कों भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी। जबकि उस दौर में महिलाओं का गायन विधा में आना उचित नहीं माना जाता था, लेकिन इसके बावजूद भीउन्होने इस परंपरा को शुरू किया,जिसका परिणाम है कि वर्तमान में शास्त्रीय संगीत में पुरूषों केसाथ महिलाएं बराबर की भूमिका अदा कर रही हैं।
आधुनिकता का आज कितना ही विस्फोट हुआ हो, लेकिन जो शास्त्रीयता हैं उस पर आधुनिकता का कोई आंतक तारी नहीं होता क्योंकि शास्त्रीयता या क्लासिकल अभिव्यकित एक शाश्वत सत्य का सृजन करती हैं जो काल से परे होता है। वर्तमान होते हुए भी वह हर काल में समादृत होता है । इसलिएसंगीत सम्राट तानसेन हर काल में अपनी जादुई गायकी के कारण अमर रहेंगे ।
तानसेन का ग्वालियर से गहरा रिश्ता रहा हैं इसकी नीव ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराज सिधिया के काल से उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप याद करने की परम्परा रही है। 1924 से तानसेन उर्स के नाम सेइसकी शुरूआत हुई थी वही 1980 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिहं ने तानसेन सम्मान के धन राशि देने का सिलसिला शुरू किया था जो अभी तक अनवरत जारी है।2015 में तानसेन अलंकरण से सम्मानित किए जाने वाले गायक को दी जाने वाली राशि में इजाफा कर इसे 2 लाख रूपये कर दिया गया ।
उस्ताद अलाउदूदीन खॉ संगीत एंव कला अकादमी के माध्यम से मध्य प्रदेश कासंस्कृति विभाग उसी परम्परा का निर्बहन करते हुए हर वर्ष ग्वालियर में तानसेन समारोह का भव्य आयो जन करता हैं।जिसमें हर जाति,धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले ख्यातनाम भारतीय संगीत मनीषियों के साथ अब विदेशी संगीत मनीषि विशुद्ध रूप में संगीत श्रद्धांजर्लि अिर्पत करने यहां उपस्थित होते है और संगीत की स्वर लहरियॉ बिखेर कर संगीत रसिकों कोभी मंत्रमुग्ध करते हैं । इस वर्ष का तानसेन समारोह इस श्रंृखला की 94वीं कडी हैं।
कला देश और काल की सीमाओं सें परे होती हैं औरउसके साधक कलाकार काल कवलित होने पश्चात भी अमृत्य होते ऐसे ही अमर कलाकारों में से एक है ।संगीत समा्रट तानसेन ।उन्होने अपनी संगीतकला से जो मान सम्मान प्राप्त किया उसके कारणवे आज भी व भारतीय संगीत के चमकदार नक्षत्र बने हुए है। भारतीय संगीत की उन्नति एवं प्रचार प्रसार में उनका अथक योगदान रहा ।
यह अगल बात हैंकि पन्द्रहवी शताब्दी के विख्यात संगीतज्ञ तानसेन के बारे में जितने तथ्य हैं उससे कही ज्यादा किंवदन्तीयांहै। ध्रपद शैली के गायक और दीपक राग के विशेषज्ञ तानसेन ग्वालियर जनपद केबेहट गांव में एक ब्राम्मण परिवार में जन्में थे । उनके पिता का नाम मकरन्द पाण्डें और माता का नाम कमला था । तानसेन को बचपन में सब तन्ना , त्रिलोचन ,तनसुख और रामतनु के नाम से पुकारते थे ।
जहा तक तानसेन के शैशवकाल और उनके जीवनकाल में घटी घटनाओं का संबध हैं वे किंवदन्तीयों और जनश्रुतियों के जंजाल में काफी उलझी हुई है इस सबंध में हकीकत सामने लाने के लिए और शेाध करने की आवश्यकता हैं ।किंवदती हैं कि तन्ना जन्मजात गूगे थे। मगर बालकाल से ही संगीत के प्रति उनका गहरा लगाव था।तन्ना अपने पालतू मवेशी को चराने के लिए नियमित रूप से झिलमिल नदी के किनारे जगल में ले जाते थे और फिर मवेशी को चरने छोडकर वे निकट के एक अति प्रचीन शिव मंदिर में शिव आराधना करने में मगन हो जाते थे। बताया जाता हैं कि तन्ना की सेवा से भगवान शिव इतने खुश हुए कि उन्होने तानसेन को दर्शन दे दिए और उनसे कहा िकवे अपनी पूरी शक्ति के साथ तान छोडे।भोले नाथ के आदेश पर तानसेन ने जैसे ही तान छोडी उनकीे तान का आवेग इतना तीव्र था कि भोले बाबा की मढिया टेढी हो गई । स्वंय तानसेन भी इस चमत्कार से भौचक्के रह गए ।
इतिहासकारो के मुताबिक तानसेन जैसे ही किशोर हुए तो वे संगीत की तालीम पाने के लिए गुरू की शरण में चलें गए गुरू ने जो सिखाया तानसेन ने मन लगाकर सिखा । तानसेन ने पीर बाबा मोहम्मद गौस से लेकर मथुरा के स्वामी हरीदास से संगीत के तमाम सारे गुर सीखे ंतानसेन ने स्वामी जी से संगीत की तालीम लेनेके साथ पिगल शास्त्र भी सिखा वही गौस साहव से गायन की तालीम ली सुर सम्राट तानसेन को हिन्दुस्तानी संगीत के साथ ईरानी संगीत में महारत हासिल थी। तानसेन के बारे में जो जनश्रुतियॉ प्रचलित हैं उसके अनुसार तानसेन को संगीत से जो खयति मिल ीवह मोहम्मद गौस और हरिदास की देन था।इतिहासकार डॉ हरिहर निवास द्धिवेदी शिवसिह डॉसरयू प्रसाद सहित मोहम्मद करम इमाम के शोध का भी यही निचोड था।
कुछ इतिहास ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता हैकि संगीत की विधिवत तालीम के लिए तानसेन स्वामी हरिदास और मोहम्मद गौस से तालीम लेने के बावजूद भी राजा मानसिह तोमर द्धारा खोले गए संगीत विघालय में संगीत सीखने गये थे।उन्होने गोविन्द स्वामी का शिष्यत्व भी स्वीकार किया
संगीत की साधन करते करते तन्ना पाण्डे जव संगीत विधा में पारंगत हो गए और उन्हे ध्रुपद में सिद्धहस्त माना जाने लगा। तानसेन ने सर्वप्रथम शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खॉ के यहां राजाश्रय पाया फिरबाधंवगढ और रीवा रियासत में उन्हें संरक्षण मिला तो उन्होने नित नये प्रयोग कर अद्धितीय गायन और मौलिक पद रचनाओं के द्धारा संगीत के क्षेत्र में अभूतपूर्व ख्याति प्राप्त की जैसे ही तानसेन चमत्कारिक गायन की खबर मुगल सम्राट अकबर के कानों तक पहुंची वैसे ही कला प्रेमी बादशाह ने जलाल खॉ को तानसेन को लाने के लिए बाधवगढ भेज दिया । तानसेन अपनी विद्धता के बल पर तानसेन सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्नों में सें एक खास रत्न बन गए।
तानसेन ने संगीत साधना के साथ ही संगीत विधा पर साहित्य सृजन भी किया मियां की मल्हार मियां की सांरग दरबारी कानडा तानसेन की ही देन माने जाते हैं ।कुछ संगीतज्ञों की धारणा हैं कि तानसेन द्धारा उस काल में भारतीय और ईरानी संगीत का फयूजन ईजाद किया था । तानसेन ने अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए सितार से मिलता जुलता वाध रबाब का भी निर्माण किया । कडवा सच तो यह हैं कि तानसेन हकीकत में तानसेन थे । तानसेन यदि सिद्धहस्त और मौलिक संगीतज्ञ न होते तो बिना किसी कार्पोरेट एड प्लानिग के निरंतर पांच शताब्दियों तक याद नहीं किए जाते ।सम्राट अकबर की दिल्ली भले ही तानसेन को भूल गई हो लेकिन ग्वालियर के बाशिन्दे नही भूले हैं।
ग्वालियर में प्रति वर्ष मनाये जाने वाले तानसेन समारोह ने अनेक उतार चढाव देखे है अनेक दैवी और प्राकृतिक विपदाओं को पार किया हैं और आज संपूर्ण देश में यह समारोह अद्धितीय स्थान रखता हैं । वर्तमान रूप में मनाये जाने वाले इस समारोह की तमाम सारी खूबी हैंसंगीत सम्राट तानसेन की समाधि के करीव बना पण्डाल संगीतकारों के लिए विशेष प्रेरणा स़्त्रोत बन जाता है फिर दिन और रात को प्रतिकूल मौसम की परवाहकिए बगैर हजारों की संख्या में संगीतप्रेमी श्रोतागण संगीत का रसास्वादन करने आते हैं।
राष्ट्रीय स्तर के तानसेन समारोह के प्रति राज्य सरकार का उपेक्षापूर्ण रवैया इस वर्ष भी जारी रहने से संगीतप्रेमियों में रोष ब्याप्त हैं।आज सायं समारोह स्थल पर उपस्थित अधिकांश संगीतकारों और कला रसिको की यही राय थी कि चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो तानसेन को सत्ता प्रतिष्ठान काफी हल्के स्तर पर ले रहा हैं।एक जमाना था तानसेन अलंकरण देने के लिए राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्री आते थे फिर यह सिलसिला संस्कृतिक मंत्री और प्रभारी मंत्री तक सीमित रह गया।इस बार तो राजधानी में राजनीतिक व्यस्तताओंके चलते किसी भी नये नबेले मंत्री को आने की फुरसत नहीं मिली।यदि फुरसत नहीं थी तो किसी बडे संगीतज्ञ के हाथों सम्मान दिलबाया जा सकताथा। सुरों की साधना करने वाले कलाकारों के मंच पर नेता और उनसे ज्यादा अफसरों की भीड की जरूरत हीक्या हैं। कला रसिकों की यह आपति तर्क संगत भी हैं। कला और संगीत के ऐसे प्रतिष्ठित मंचों पर देश के शीर्षस्थ कलाकारों का सम्मान
उन्हीं की बिरादरी के किसी जाने माने संगीतज्ञ से कराया जाना चाहिए नकि नेताओं या सरकार के बडे बाबुओं के हाथों।यदि सरकार इस पर गंभीरता से विचार करे तो वह कला संगीत जगत में कायम गुरू शिष्य परंपरा का मान ही बढाएगी।