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!! अहम ब्रहास्मि !!

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||

“That (‘Brahman’) is infinite, and this (‘universe’) is infinite; the infinite proceeds from the infinite. (Then) taking the infinitude of the infinite (‘universe’), it remains as the infinite (‘Brahman’) alone.” – (Brihadaranyaka Upanishad V.i.1)

ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।

बचपन में सबसे पहले जब अपने नानाजी से यह श्लोक सुना और सुन कर अनसुना कर दिया उस समय इसका अर्थ समझ पाना भी असंभव था। लेकिन कहानी रुकी नहीं चलती गई और इस वाक्य ने कभी पीछा नहीं छोड़ा, कुछ और दिन बीते तो इसका अर्थ समझ में आया। लेकिन अर्थ को जान लेना और अर्थ को पा लेना दोनों ही अपर्याय है। अर्थ को जान लेने के बाद अर्थ को पा लेने पर आज भी प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा हुआ है। जब गुरुजी गणित पढ़ा रहे थे उन्होने ने भी अपनी गणितीय भाषा में इसका अर्थ समझाया तब जाकर जितना श्लोक का अर्थ समझ आया उतना ही गणित से प्यार हो गया। अब बारी थी मानवीय संवेदना पिरोने की थी ताकि गुलाब की एक टहनी जो वरसात में जमीन में गाड़ तो दी गई पर इसपर कौपल आना बाकी था। उसे पौधा-पत्ती-कली-फूल बनना बाकी था।

सचमुच में अनंत क्या है ? वो जो हमें दिखाई देकर भी दिखाई नहीं देता जो दूर तक फैला है, अपने दायें हाथ से शुरु होकर उस दूर गगन तक या यहीं कहीं अपने आस पास ही है।

अलग अलग लोगों से सुना है दुनिया बहुत बड़ी है। दुनिया का चक्कर लगाया जा सकता है पर इसे पूरा घूमा नही जा सकता। इतने सारे लोग इतनी सारी संस्कृतियाँ जो वर्षों से चली आ रही है कुछ बन रही है कुछ मिट रही। इतने लोग जो सड़क पर चल रहे है, साइकिल से जा रहे है, रिक्शा ढो रहे है, गाड़ी पर सवार है सब अपूर्ण दिखाई देते है। पूर्णताको खोजना जैसे नामुमकिन हो। फिर कैसे माना जाये हम उस अनंत का ही हिस्सा है और अनंत से हम निकले अनंत ही है? कई बार लगता है संस्कृतिया हमने बनाई नहीं है बस रटी हुई है एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी उसी का बोझ लिए हम चल रहे है। कहाँ ? शायद पता नहीं। वैसे तो संस्कृति उस नदी की तरह होती है जो बरसात की छोटी-छोटी धाराओं का संगम होकर अपने मूल आकार में आती है फिर धरातल देख अपना पथ सुनिश्चित करती है। अब इस नदी पर किसका अधिकार है ? उन छोटी-छोटी धारों का जो जुड़कर एक हुई। और सभी की प्यास बुझाने के लिए तत्पर है तुम्हारे खेतों को पानी देने को तत्पर है। लेकिन मौसम अब बदल गया है बरसाती धाराएँ सूख गई है। एक दूर शहर से नाला चला आ रहा है। मैला-कुचैला अपनी तीक्ष्ण गंध के साथ। नदी ने उसे भी गले लगाया लेकिन नदी से ज्यादा नाले ने नदी को गले लगाया। अब नाला चीख-चीख कर बोल रहा है ये नदी उसकी देंन है। ये संस्कृति उसकी देंन है। अगर नाला पानी देना बंद कर दे तो यह सूख जाएगी। नदी अवाक है पहले की तरह। संस्कृति कोई दासता नहीं है ये तो विश्वास, परिस्थिति व परम्पराओं का समागम है जो हर काल में बदला है और काल-काल में बदलेगा किन्तु इसका मूल रूप जो मानवता से अलग नहीं है, कभी नहीं बदलेगा।

बालक जन्म लेता है उसे सहारे की जरूरत पड़ती है वयस्क होने तक वो इस जरूरत को महसूस करता है। किन्तु इससे आगे निकलने पर उसे लगता है वो स्वयं के लिए कुछ कर रहा है किन्तु वास्तव में वह उस समाज के लिए कर रहा होता है जो उसने बड़ा होने पर अपने आसपास देखा। शायद इसी परंपरा ने प्राचीन भारतीय लेखकों को अवगत कराया कि तेरा तुझको अर्पण, वो स्वयं, स्वयं नहीं है किन्तु “अहम ब्रम्हास्मि”। जब इस बात का भान होता है तो अनंत कि पूर्णता भी आती है सामाजिक दायित्वों का भी बोध होता है। हम जो लिख रहे है, जो कर रहे है, जो चाह रहे है, चाहे वो कुछ भी हो समाज के कुछ लोग भले ही कहें “हमें इससे फर्क नहीं पड़ता” पर कहीं न कहीं वह उनकी संततियों को जरूर प्रभावित करता है। उनके आचरण को प्रभावित करता है।

हमारी चेतना माचिस कि तीली के समान है जो माचिस रगड़ खाकर जल जाती है अगर वास्तव में अपने उदेश्य से स्वयं अंजान होती है। पुरुषार्थ पर भी यही नियम लागू होता है। इतिहास हमें बताता है जीतने भी महापुरुषों ने इस विश्व में जन्म लिया है इसमें सबसे बड़ा योगदान उनकी परिस्थिति और चेतना का रहा है। अगर महापुरुषों के सामने वह परिस्थितियाँ नहीं होती तो शायद हम उस चरित्र से कभी नही मिल पाते। यूं कहें तो हम गुलाम नहीं होते तो महात्मा गांधी और भगतसिंह जैसे चरित्रों से कभी नहीं मिल पाते। लेकिन परिस्थितियों को पैदा करने वाला कौन था, जिसमें गांधी, गांधी और सुभाष, सुभाष हुये। इसी एक का नाम लेना मुश्किल है, उस समय जो भी लोग थे सभी की उस चरित्र निर्माण में जानी अनजानी भूमिका थी।

स्वयं को छोटा, अभागा महसूस करना किन मायनों में सही है कभी कभी समझ नहीं आता तो कभी लगता है पूरा समीकरण ही तो साफ है। प्रकृति कभी भी अपने आधारभूत तत्व देने में मानवमात्र या किसी अन्य जीव में भेदभाव नहीं करती। अपना अस्तित्व इतना विशाल होने के बावजूद। भागवत गीता का एक श्लोक है जो मुझे उतनी ही तीव्रता से आकर्षित करता है जितना अनंतता का सिद्धान्त उसमें कृष्ण कहते है कि अर्जुन कर्म करना मनुष्यों जीवों की प्रकृति है। बिना कर्म किए कोई भी क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता। इसका अर्थ यह है कि कर्म मनुष्य के जन्म के साथ जन्म लेता है और मरण के साथ मर जाता है। अब केवल और केवल रह जाता है प्रभाव प्रत्येक मनुष्य जाने अंजाने में अपनी क्रियाओं द्वारा प्रभाव छोड़ना चाहता है। लेकिन यह भी सत्य है कि शांत पानी पर जब एक फेंका कंकड़ अपना प्रभाव डालता है तो सम्पूर्ण पानी को तरंगित कर देता है लेकिन यह स्थायी नहीं होता। उस तालाब का पानी अपनी प्रकृति के फिर अधीन हो जाता है। वास्तव में यही सत्य है। हम केवल शांत जल में क्षणिक लहरे बनाने का प्रयास भर कर रहे है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

“मानव को जो चाहिए इसी समाज से आता है जो देना है वो इसी समाज को देना है।” जब मन यहाँ आता है तो थोड़ा रुकता है, यह सामाजिक परिकल्पना नहीं है, यथार्थ है। जो समाज को एक धागे से बांधे रखता है। जब समाज का हर एक इंसान कुछ समाज को सौंपता है तो अंततोगत्वा वह उसी को पुनः मिलता है इस बार उसकी अनुभूति कुछ और होती है कुछ अलग होती है उसने जो गुलाब की टहनी मिट्टी में बोई थी अब उसमें पट्टियाँ भी है फूल भी है टहनीया भी फिर कौन अभागा होगा जो अपने लगाए पौधे को फलता-फूलता देखकर प्रसन्न न हो। यह प्रसन्नता उसके अन्तर्मन की होती है। वो पल ही अलग होता है। अद्व्यतीय होता है। इसीलिए इस संसार रूपी बाग में जीतने हो सके सुंदर-सुंदर पौधे रोपो, वृक्ष लगाओ ताकि आने वाली पीड़िया इसका लाभ ले सके। एक लहर कि भांति ही सही आपके इस कृत्य को याद कर सकें।

एक बार विलियम ब्लैक ने भी कहा था – Everything That’s Lives, Lives Not Alone, Not For Itself. अर्थात सभी चीजें जो ज़िंदा है वो अकेली व स्वयं के लिए ज़िंदा नहीं है किन्तु अभी तक हम इस चीज को अपने आचरण में नहीं उतार पाये वस्तुतः हर जीवित प्राणी के अंदर जन्मजात है। आधुनिक ब्रह्मांड की व्याख्या भी यही है कि यह कहीं न कहीं सब शून्य से शुरू हुआ है और एक दिन सब शून्य में विलीन हो जाएगा। दूसरे शब्दों में हम सब का जन्म एक ही तत्व से हुआ है। इसीलिए

“अहम ब्रह्मास्मि”

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