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प्रगतिशील लोकतंत्र के लिए जरूरी है ‘एक देश एक चुनाव’

* प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली

एक स्‍वस्‍थ, टिकाऊ और विकसित लोकतंत्र वही होता है, जिसमें विविधता के लिए भरपूर जगह होती है, लेकिन विरोधाभास नहीं होते। माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भविष्‍योन्‍मुखी दृष्टि वाले नेतृत्‍व में विश्‍व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत धीरे-धीरे इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। ‘एक देश-एक टैक्‍स‘ की सफलता ने इस बात को सही साबित किया है। अब तक देश के लगभग एक तिहाई राज्‍यों में लागू हो चुके ‘एक नेशन-एक राशन’ कार्यक्रम के ऐसे ही सकारात्‍मक परिणाम मिल रहे हैं। इसी प्रकार, एक देश-एक कानून (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू किए जाने के विचार को भी जनता के एक विशाल वर्ग का अपार समर्थन मिल रहा है।
‘एक देश-एक चुनाव’ लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने का एक नीतिगत उपक्रम है। इसे समझने के लिए हमें चुनाव की प्रक्रिया को समझना होगा। हमारे देश में केंद्र और सभी राज्‍यों में, केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़कर, जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें कार्य करती हैं। इनका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। ये कार्यकाल, किसी भी महीने पूरा हो सकता है। जब किसी निर्वाचित सरकार का पांच साल का कार्यकाल पूरा हो जाता है, तो उस राज्‍य में अथवा केंद्र में एक निर्धारित अवधि के अंदर नए चुनाव कराना आवश्‍यक होता है, ताकि वहां नई सरकार गठित की जा सके और देश और उस प्रदेश का काम फिर से सुचारू ढंग से चलना सुनिश्चित‍ किया जा सके।
चुनावों की प्रक्रिया को निर्बाध व निष्‍पक्ष ढंग से सम्‍पन्‍न कराने के लिए, काफी बड़े तंत्र व खर्च की आवश्‍यकता होती है। जितने ज्‍यादा चुनाव, उतनी ही ज्‍यादा व्‍यवस्‍था। 2023 को ही लें । इस साल राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, जम्‍मू–कश्‍मीर, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम समेत देश के दस राज्‍यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें कितने समय, धन और व्‍यवस्‍था की जरूरत पड़ेगी, इसका अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऊपर से, इन चुनावों के खत्‍म होते-होते लोकसभा चुनावों की गहमागहमी शुरू हो जाएगी। अब सोचिए कि अगर इन राज्‍यों के और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की व्‍यवस्‍था की जा सके तो कितना देश का कितना समय और धन बचेगा।
आज अगर हम देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें, तो पायेंगे कि हर वर्ष देश को कोई न कोई हिस्सा चुनावमय बना रहता है। लेकिन, शुरुआत में ऐसा नहीं था। देश के पहले आम चुनावों से लेकर अगले पंद्रह सालों तक, 1952,1957, 1962, 1967 में चार बार लोकसभा चुनाव हुए और हर बार राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी इनके साथ-साथ ही करवाए गए। लेकिन, जब 1968-69 में अलग-अलग कारणों से कुछ राज्यों की विधानसभाएं उनका कार्यकाल खत्‍म होने से पहले ही भंग कर दी गईं, तो यह सिलसिला बाधित हो गया। यहां तक कि पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले ही करवा लिए गए। चौथी लोकसभा का कार्यकाल 1972 तक था, लेकिन आम चुनाव इसके पूरा होने से पहले ही 1971 में करा लिए गए।
इससे समझा जा सकता है कि अगर राज्‍यों के विधानसभा चुनाव और आम चुनाव एक साथ आयोजित कराने की बात की जा रही है तो इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर आपत्ति की जानी चाहिए। लेकिन, जब भी केंद्र में सत्तासीन एनडीए सरकार, एक बार फिर इस व्‍यवस्‍था की बहाली की बात करती है तो विपक्ष इस तरह मुखर हो उठता है कि जैसे उसे किसी भी हाल में यह नहीं होने देना है। भाजपा विरोधी कुछ दल इसे भाजपा का ‘सत्ता का केंद्रीकरण करने की योजना’ कहकर इसका विरोध जारी रखे हैं, जबकि सच तो यह है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा काफी पुरानी है। इस विषय पर संविधान समीक्षा आयोग, विधि आयोग, चुनाव आयोग और नीति आयोग जैसे प्रभावशाली संस्‍थानों की राय भी काफी सकारात्‍मक है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत नेतृत्‍व में राजग सरकार, राष्‍ट्रहित में इस विचार को और अधिक लटकाए न रखकर एक ठोस व साकार रूप देना चाहती है।
*25 साल से जारी है विचार*
विशेषज्ञ लंबे समय से ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ पर अपनी राय व्यक्त करते रहे हैं। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। रिपोर्ट का एक पूरा अध्याय इसी मुद्दे पर केंद्रित है। चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की इस रिपोर्ट को देश में राजनीतिक प्रणाली के कामकाज पर अब तक के सबसे सटीक दस्तावेज़ों में से एक माना जाता है। मजबूत केंद्र एवं शक्तिशाली नेतृत्व के प्रबल पक्षधर, तत्कालीन गृहमंत्री और प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने इसे राजनीतिक स्तर पर प्रमुखता से उठाया था। वर्ष 2003 में, अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया था।
‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ को लेकर भाजपा की इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता, पार्टी के 2014 और 2019 के घोषणापत्रों में भी देखी जा सकती है। दूसरी बार सत्ता संभालने के महज एक ही महीने बाद, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 19 जून 2019 को इस पर चर्चा के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। इसके लिए आमंत्रित 40 दलों में से 21 दलों के नेता इस विमर्श में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में रखी गई इस बैठक में शामिल हुए। बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में एक कमेटी गठित करने का निर्णय लिया गया, जिससे इस मुद्दे पर आम सहमति बनाई जा सके और इसके काम करने के तरीकों की व्यवहारिकता और संभावनाओं को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की जा सके।
*समय की मांग है ‘एक देश, एक चुनाव’*
इसके पीछे सबसे बड़ा उद्देश्‍य तो यही है कि राजकोष पर पड़ने वाले चुनावी खर्च के बोझ को कम से कम किया जाए, जो पिछले कुछ दशकों में लगातार बढ़ता ही गया है। इसके अलावा थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद होने वाले चुनावों के दौरान आचार संहिता लागू हो जाने से बहुत सारे विकास कार्य और जनहित कार्यक्रम बाधित होते हैं, इससे भी बचा जा सकेगा।
अगर हम खर्च की ही बात करें तो पिछले पैटर्न को देखते हुए हम पाएंगे कि पहले आम चुनावों से लेकर पिछले आम चुनावों तक उम्‍मीदवारों की संख्‍या करीब पांच गुना बढ़ी है, लेकिन चुनावों पर आने वाला खर्च पांच हजार गुना से भी ज्‍यादा हो गया है। 1951-52 में जब पहले लोकसभा चुनाव हुए थे, तो इनमें 53 राजनीतिक दल चुनावी समर में उतरे थे। इन चुनावों में 1874 उम्‍मीदवारों ने चुनाव लड़ा और खर्च आया कुल 11 करोड़ रुपए। अब 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हैं। इनमें कुल 9000 उम्‍मीदवारों ने चुनाव लड़ा और खर्च था लगभग 60 हजार करोड़ रुपए। यानि हर लोकसभा क्षेत्र पर औसतन 110 करोड़ का खर्च। जबकि 2014 के आम चुनावों पर इसका आधा ही यानी लगभग 30 हजार करोड़ रुपए खर्च आया था।
अब देश में विधानसभा सीटों की बात करते हैं। सभी राज्‍यों में कुल मिलाकर विधानसभा की चार हजार से अधिक सीटें हैं। मोटे-मोटे तौर पर एक लोकसभा क्षेत्र में करीब आठ विधानसभा सीटें आती हैं। अगर हम 2019 के आम चुनावों के खर्च को विधानसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्‍य में देखें, तो यह लगभग 15 करोड़ रुपए प्रति विधानसभा सीट बैठता है। मान लीजिए कि एक लोकसभा सीट और उसके अंतर्गत आने वाली आठ विधानसभा सीटों के लिए दो अलग-अलग समय पर चुनाव होते हैं। ऐसे में यह खर्च दोगुना हो जाएगा। लेकिन, अगर हम इन्‍हीं चुनावों को एक साथ करायें तो इस खर्च को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इससे जो धन राशि बचेगी, उसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, पेयजल की उपलब्‍धता सुनिश्चित कराने जैसे कार्यों में किया जा सकता है, जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार आएगा।
*चुनौतियां भी कम नहीं*
सिर्फ खर्च ही नहीं, बल्कि अन्‍य कई दृष्टि से भी ‘एक देश एक चुनाव’ का विचार काफी फायदेमंद है। इसमें प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों पर बार-बार पड़ने वाला बोझ कम होगा, जिससे वे चुनावी गतिविधियों से बचा समय दूसरे उपयोगी कामों को दे सकते हैं। मतदाता सरकार की नीतियों को केंद्र व राज्‍य दोनों स्‍तर पर परख सकेंगे। बार-बार चुनाव होते रहने से शासन-प्रशासन के कार्यों में जो बाधाएं आती हैं, उनसे बचा जा सकेगा। साथ ही एक निश्‍च‍ित अंतराल के बाद चुनाव कराए जाएंगे तो जनता को भी राहत मिलेगी और राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, चुनावों में सुरक्षा व्‍यवस्‍था संभालने वाली एजेंसियों को इनकी तैयारी के लिए पर्याप्‍त समय मिल सकेगा।
हालांकि, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस राह में बहुत सारी चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्‍या तो लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल के बीच सामंजस्‍य स्‍थापित करने की है। अगर हम 2024 के आम चुनावों को ही लें तो देश के करीब आधे राज्‍यों की विधानसभाएं इन चुनावों के दौरान ऐसी होंगी, जिन्‍होंने अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं किया होगा। ऐसे में उन्‍हें बीच में भंग कर नए चुनाव कराना बहुत सारे राजनीतिक विवादों का सबब बन सकता है।
मान लीजिए कि राजनीतिक दल आपसी सहमति से इसके लिए तैयार भी हो जाते हैं, तो इस विचार को व्‍यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए कई विधानसभाओं के कार्यकाल को घटाना पड़ेगा और कई के कार्यकाल को बढ़ाना। और इसके लिए संविधान में अनेक संशोधनों की आवश्‍यकता होगी। जैसे कि अनुच्‍छेद 83, जो कहता है कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष होगा और अनुच्‍छेद 172, जो यही प्रावधान विधानसभा के लिए निर्धारित करता है। इसके अलावा जनप्रतिनिधित्‍व अधिनियम और संसदीय प्रक्रिया में भी बदलाव करना होगा। लेकिन, अगर इरादा पक्‍का हो और राजनीतिक इच्‍छाशक्ति मजबूत हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।
दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम जैसे दुनिया के कई देश हैं, जो केंद्र और राज्‍यों के चुनाव एक साथ ही कराते हैं, ताकि उनके विकास की गति बाधित न हो। भारत इन देशों के अनुभवों का लाभ उठा सकता है।

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