(विशाल सोनी, चंदेरी)
इतिहास एवं पुरातत्वविद् डॉ. अविनाशकुमार जैन सराफ से खास बातचीत
प्राकृतिक सुषमा से सुशोभित वर्तमान चन्देरी का इतिहास अत्यंत मार्मिक कृति है। इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनष्य का अपनी परम्परा में आत्म विश्लेषण है। तारीखें और सन् संवत् की सूची बनाने से इतिहास पूर्ण नहीं होता, उसका गौरव कृति में है, देशकाल और पात्रों के समन्वय में कृति करना ही इतिहास है।
विरासत नगर चन्देरी के इतिहास को जानने के लिए हमने इतिहासकार एवं पुरातत्वविद् डॉ. अविनाशकुमार जैन सराफ से बातचीत की उन्होंने बताया कि महाभारत काल में यह क्षेत्र चेदि जनपद के राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल के अधीन था और उसकी राजधानी बूढ़ी चन्देरी को पुरातत्वविदों ने माना है। महाभारत में इन्हीं शिशुपाल का शीशोच्छेदन भगवान श्रीकृष्ण ने किया था। इसके पश्चात् साम्राज्यवादी काल चलता रहा।
डॉ. अविनाश जैन से वर्तमान चन्देरी के प्रमाणिक इतिहास को हमने जानने की उत्सुकता व्यक्त की तो उन्होंने कहा – इतिहास जानने के सबसे प्रमाणिक साक्ष्य अभिलेख, शिलालेख या प्रस्तर लेख होते हैं। तो अभिलिखित साक्ष्यों के आधार पर वर्तमान चन्देरी का इतिहास जानिये। सर्वप्रथम वि.सं. 999-1000 (सन् 942-43 ई.) के प्राप्त श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र भियाँदाँत (ग्राम रखतेरा या गढ़ेलना के समीप) से प्राप्त प्रस्तर लेख के अनुसार यह क्षेत्र विनायकपालदेव के आधीन था। इस अभिलेख में उन्होंने इस क्षेत्र की सिंचाई व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी राशि प्रदान करने का उल्लेख किया है।
इसके पश्चात् परवर्ती प्रतिहार वंश की एक शाखा के शासन करने की जानकारी शिलालेखों, मूर्तिलेखों व ताम्रपत्र लेखों से प्राप्त होती है। कि इस शाखा के प्रथम शासक नीलकण्ठ का राज्य इस क्षेत्र में स्थापित हुआ। यह अभिलेख मुख्यतः बूढ़ी चन्देरी, कदवाहा (वर्तमान नाम कदवाया), थूबोन एवं पचरई (जिला शिवपुरी) से प्राप्त हैं। नीलकण्ठ के शासन की जानकारी वि.सं. 1040 (सन् 983 ई.) के हरिराज के ताम्रपत्र लेख एवं जैत्रवर्मन के तिथिरहित प्रस्तर लेख में उल्लेखित है। जिसमें नीलकण्ठ को ‘भूपाधिप’ (राजाओं का राजा) व प्रतिहार वंश का कहा गया है। इसके साथ वि.सं. 1055 (सन् 998 ई.) के थूबोन शिलालेख, कदवाहा से प्राप्त खण्ड़ित शिलालेख, पचरई से प्राप्त वि.सं. 1122 (सन् 1065 ई.) के शान्तिनाथ मन्दिर मूर्तिलेख, बूढ़ी चन्देरी से प्राप्त तिथिरहित (लगभग 12वीं सदी ई.) के शिलालेख व जैत्रवर्मन के शिलालेखों से इस वंश के शासकों के साथ इस वंश द्वितीय शासक हरिराज की जानकारी प्राप्त होती है। सन् 983 ई. के ताम्रपत्र लेख में हरिराज को ‘अधिराज’ एवं ‘महाराजाधिराज’ की उपाधियों से विभूषित किया गया है। थूबोन शिलालेख में हरिराज को श्री हर्ष व धंग के समान राजाओं को उसका सहायक तथा प्रतिहार कुल का कहा गया है। हर्ष व धंग चन्देल वंश के प्रतापी सम्राट थे। थूबोन प्रस्तर लेख में यह भी उल्लेखित है कि हरिराज द्वारा यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर का निर्माण कराया था। कदवाहा से प्राप्त तिथिरहित खण्ड़ित प्रस्तर लेख में हरिराज को ‘नृपचक्रवर्ती’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है।
हरिराज के पश्चात् भीमदेव (भीम) के शासन कर जानकारी कदवाहा, पचरई व बूढ़ी चन्देरी से प्राप्त शिलालेखों से होती है। रणपालदेव इस वंश का चतुर्थ शासक बना। जिसकी जानकारी वि.सं. 1100 (सन् 1043 ई.) के प्राप्त प्रस्तर लेख से होती है। पचरई से प्राप्त शिलालेख भी रणपाल के शासन की पुष्टि करते हैं।
कदवाहा से प्राप्त कीर्तिपाल (कीर्तिराज) व उसके भाई उत्तम के समय का प्राप्त तिथिरहित (लगभग 12वीं शताब्दी ई.) का एवं जैत्रवर्मन के तिथिरहित (लगभग 13वीं शताब्दी ई.) के अभिलेख प्राप्त हैं। इस प्रकार प्रारंभ से देखें तो थूबोन, बूढ़ी चन्देरी, कदवाहा एवं पचरई से प्राप्त शिलालेखों, मूर्तिलेखों व ताम्रपत्र लेखों के अनुसार पृथक-पृथक वंशवृक्षों की तुलना करने पर परवर्ती प्रतिहार वंश के तेरह शासकों की जानकारी क्रमशः नीलकण्ठ, हरिराज, भीमदेव, रणपालदेव, वत्सराज, सुवर्णपाल (स्वर्णपाल), कीर्तिपाल (कीर्तिराज), उत्तम, अभयपाल, गोविन्दराज, राजराज, वीरराज, एवं जैत्रवर्मन के शासन करने की जानकारी प्राप्त है।
चन्देरी से प्राप्त जैत्रवर्मन के तिथिरहित प्रस्तर लेख के अनुसार चन्द्रपुर (वर्तमान चन्देरी) में कीर्तिदुर्ग, कीर्तिसागर तथा कीर्तिनारायण के मन्दिर निर्माण की सूचना प्राप्त है। कीर्ति नाम के आधार पर यह निर्माण कीर्तिपाल द्वारा कराये जाना प्रतीत होता है। अर्थात् वर्तमान चन्देरी को कीर्तिपाल द्वारा बसाया था तथा चन्देरी का किला कीर्तिदुर्ग, उसके समीप कीर्तिसागर (कीरतसागर) तथा भव्य कीर्तिनारायण (श्रीकृष्ण) का मन्दिर का (गिलउआ ताल पर) निर्माण कराया था।
कुछ समय पूर्व खन्दारगिरि मार्ग निर्माण में प्राप्त एक जैन मानस्तम्भ के दण्ड़ भाग में उत्कीर्ण शिलालेख से सन् 1275 ई. का प्राप्त हुआ है, जिसमें कीर्तिदुर्ग शासक वीसलदेव के नाम का उल्लेख है। यह किस वंश के थे इस पर शोध कार्य शेष है।
अन्त में डॉ. जैन ने कहा कि – इस प्रकार परवर्ती प्रतिहारों की इस शाखा के शिलालेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि परवर्ती प्रतिहारों का वंश कन्नौज के सम्राज्यवादी गुर्जर प्रतिहारों की ही एक स्वतंत्र शाखा थी, इसलिए इस शाखा के प्रतिहार शासक हरिराजदेव द्वारा साम्राज्यवादी उपाधियों को धारण किया था। अर्थात् इन्होंने कन्नौज के प्रतिहार शासकों की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था तथा इस क्षेत्र में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। प्रस्तर लेखों में उल्लेखित गोभट (दूर्भट) संभवतः उनके ही पूर्वज थे। इस वंश का शासक जैत्रवर्मन संभवतः इस वंश का अंतिम शासक था। क्योंकि उसके बाद इस वंश की वंशावली या अन्य किसी शासक की सूचना प्राप्त नहीं है। अतः इस शाखा ने लगभग 10वीं शताब्दी ई. के द्वितीय चतुर्थांश के अन्त से लेकर 13वीं शताब्दी ई. तक चन्देरी, थूबोन, कदवाहा, पचरई तथा इसके आसपास के क्षेत्र में शासन किया था। आगे के इतिहास के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।