आम सभा, विशाल सोनी, चंदेरी।आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकार भाव छोड़ना तथा स्व-पर उपकार की दृष्टि से धन आदि का दान करना त्याग धर्म है. आध्यात्मिक दृष्टि से राग द्वेष क्रोध मान आदि विकार भावों का आत्मा से छूट जाना ही त्याग है। उससे नीची श्रेणी का त्याग धन आदि से ममत्व छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिये दान करना है।
दान के मूल ४ भेद हैं- (१) पात्रदान, (२) दयादान (३) अन्वयदान (४) समदान।
पात्रदान:-मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, आदि धर्मपात्रों को दान देना पात्रदान है।
पात्र के संक्षेप से ३ भेद हैं – (१) उत्तम, (२) मध्यम, (३) जघन्य।
महाव्रतधारी मुनि उत्तम पात्र है। अणुव्रती श्रावक माध्यम पात्र हैं। व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इनको दिया जाने वाला दान ४ प्रकार का है (१) आहारदान, (२) ज्ञानदान, (३) औषधदान (४) अभयदान।
मुनि, आर्यिका आदि पात्रों को यथा विधि भक्ति, विनयख् आदर के साथ शुद्ध भोजन करना आहारदान है। मुनि आदि को ज्ञानाभ्यास के लिए शास्त्र, जिनवाणी का देना ज्ञानदान है। मुनि आदि व्रती त्यागियों के रोगग्रस्त हो जाने पर उनको निर्दोष औषधि देना, उनकी चिकित्सा (इलाज) का प्रबंध करना, उनकी सेवा सुश्रुषा करना औषधदान है।
वन पर्वत आदि निर्जन स्थानों में मुनि आदि व्रती त्यागियों को ठहरने के लिये गुफा मठ आदि बनवा देना जिससे वहाँ निर्भय रूप से घ्यान आदि कर सकें, अभयदान है। दयादान या करूणादान:-दीन दुःखी जीवों के दुःख दूर करने के लिए आवश्यकता के अनुसार दान करना दयादान है। यदि कोई दुखी दरिद्री भूखा हो तो उसको भोजन करना चाहिये, यदि निर्धन विद्यार्थी हो तो उसको पुस्तक, छात्रवृत्ति, ज्ञानाभ्यास का साधन जुटा देना चाहिये। गरीब रोगियों को मुफ्त दवा बाँटना उनेक लिये चिकित्सा का प्रबंध कर देना, यदि दीन दरिद्र दुर्बल जीव को कोई सता रहा हो तो उसकी रक्षा करना, भयभीत जीव का भय मिटा कर निर्भय करना तथा अन्य किसी विपत्ति में फँसे हुए जीव का करुणा भाव से सहायता करना, किसी अनाथ का पालन पोषण करना, यह सब दयादान या करुणादान है।
समदान:-समाज, जाति बिरादरी में सब व्यक्ति एक समान होते हैं। धनी धनहीन का भेद होते हुए भी सबके अधिकार बराबर होते हैं। उनमें छोटा बड़ापन नहीं होता, अतः समाज उन्नति के लिए जो धन खर्च किया जावे, प्रेम संगठन बढ़ाने के लिये जो द्रव्य लगाया जावे यह सब समदान है। जैसे-धर्मशाला बनवाना, विद्यालय पाठशाला खोलना, समिति स्थापित करना, प्रचारकों द्वारा प्रचार करना इत्यादि।
अन्वयदान:-अपने पुत्र, पुत्री, भाई बहिन, भानजे, भतीजे आदि सम्बन्धियों को द्रव्य देना अन्वयदान है। इन चारों दानों में से पात्रदान भक्ति से दिया जाता है। करुणादान दयाभाव से किया जाता है। समादान सामाजिक प्रेम से किया जाता है और अन्वयदान सम्बंध के स्नेह से दिया जाता है। उत्तम त्याग धर्म के विषय में समझाते हुए मुनि श्री पद्म सागर जी महाराज ने कहा कि –
दान की श्रेणी:-पूर्वोक्त चारों प्रकार के दानों में पात्रदान सबसे उत्तम हैं। इसका कारण यह है कि साधु त्यागी व्रती संसार का सबसे अधिक हित् साधन करते हैं वे केवल थोड़ा सा साधारण भोजन लेते हैं किन्तु लोक- कल्याण के लिये वे महान् कार्य करते रहते हैं। संसार में शांति सदाचार, सद्ज्ञान का प्रचार करते हैं तथा अपनी भी आत्मशुद्धि करते हैं।
इस कारण सबसे उत्तम शुभफल पात्रदान से प्राप्त होता है। जैसे बड़ का बीज तिल से भी छोटा होता है किन्तु उसको बो देने पर बड़ का बड़ा भारी छायादार वृक्ष पैदा हो जाता है उसी तरह धर्म पात्रों को दिया गया थोड़ा सा भी दान बड़े भारी शुभ फल को प्रकट करता है।
जो व्यक्ति सम्यक् श्रद्धा से शून्य होते हैं, व कुपात्र कहे जाते हैं उनको दान देने से कुभोगभूमि में जन्म मिलता है, जहाँ भोगभूमि के शरीरिक सुख तो मिलते हैं किन्तु विकृत शरीर मिलता है, पशुओं के समान जीवन होता है। दुष्ट, दुराचारी, कुपथगामी पापी मनुष्य अपात्र हैं, वे दान पाने के अधिकारी नहीं है। ऐसे अपात्रों को दान देने से पुण्य के बजाय पाप कर्म का बंध होता है क्योंकि हिंसक, मद्यपेयी, शिकारी, जुआरी को दान में कुछ द्रव्य मिल जावे तो उससे वह कुकर्म पाप ही करता है।
पात्रदान से दूसरी श्रेणी पर करुणादान है क्योंकि करुणादान में हृदय की दयाभावना फलती-फूलती है अहिंसा भाव का विकास होता है, और दुखियों का दुःख दूर होता है।
तीसरी श्रेणी पर समदान है क्योंकि समयदान से साधर्मीजन का पोषण होता है जिससे धार्मिक परम्परा को प्रगति मिलती है। चौथी श्रेणी का अन्वय दान है क्योंकि इसमें लौकिक स्वार्थ की भावना मिली रहती है।
दान देते समय दाता के हृदय में न तो क्रोध की भावना आनी चाहिये, न अभिमान जाग्रत होना चाहिए, दान में मायाचार तो होना ही नहीं चाहिये। ईष्र्याभाव से दान देने का भी यथार्थ फल नहीं मिलता। साथ ही किसी फल या नाम-यश की इच्छा से दान करना भी प्रशंसनीय तथा लाभदायक नहीं। दाता को शांत, नम्र, सरल, निर्लोभी, सन्तोषी, विनीत् होना चाहिए।
यश कीर्ति तो दान देने वाले को अपने आप मिलती ही है फिर कीर्ति की इच्छा से दान करना व्यर्थ है। दान देते समय सदा यह उदार भाव होना चाहिए कि जिसको दान दे रहा हूँ उसका कल्याण हो। दान देने से पुण्य कर्म का संचय होता है इस कारण दान से स्व-उपकार होता ही है। जैन प्रवक्ता प्रवीण जैन जैनवीर ने कहा कि मुनिराज भी दान कर सकते हैं और किया करते हैं। तथा उनका दान गृहस्थों के दान से भी अधिक महत्वपूर्ण होता है।
मुनिवर एक तो सब जीवों को अभयदान देते हैं क्योंकि वे परम करुणामय अहिंसा महाव्रत के धारी होते हैं। दिन रात, उठते-बैठते, सोते जागते बहुत सावधानी से छोटे बड़े, त्रस स्थावर जीवों की रक्षा में तत्पर रहते हैं। यदि उनको कोई मारे या गाली दे, अपमान करे तो भी न तो किसी को दुर्वचन कहते हैं, न शाप देते हैं और न कुछ अपने मन में उसके लिये बुरा विचार रखते हैं। इसी कारण उनकी शांति और अहिंसा का प्रभाव उनके निकटवर्ती पशु पक्षियों के ऊपर भी ऐसा पड़ता है कि वे भी अपनी हिंसक वृत्ति छोड़ देते हैं। श्रेणिक राजा ने ध्यान मग्न यशोधर मुनि को मार डालने के लिये अपने शिकारी कुत्ते छोड़ दिये थे; परन्तु परम शांत, यशोधर मुनि के पास पहुँच कुत्ते शांत होकर उनके चारों ओर बैठ गये। इस प्रकार मुनिराज अपने पास आये हुये जीवों की रक्षा करते हुए उनको अभयदान देते हैं। हिंसकों को अहिंसक बनाकर जीवों की रक्षा करने की प्रेरणा देते हैं, वह इस तरह वे सबको अभयदान करते हैं। तथा-अपने पास आने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष को आत्मा, अनात्मा, परमात्मा, बंध मोक्ष का, पुण्य पाप का ज्ञान कराते हैं, सुगति दुर्गति जाने का बोध कराते हैं.