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लोकतांत्रिक मंदिर का अपमान

भारत का मन उल्लास से भरा पुरा हैं। आज नए संसद भवन का लोकार्पण हो रहा है। यह लोकतंत्र और संसद के महोत्सव का दिन हैं। संसद की यह इमारत समग्रतः भारतीयता के प्रतिरूप हैं । यह भवन भारत की आत्मनिर्भता की स्पष्ट व्याख्या करता है। भारत के श्रमयोगियों ने उसे अपनी श्रम से गढा हैं, उसका श्रृंगार किया है। हमे इस इमारत पर गर्व होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य कहे या विडंवाना की भारतीय स्वाभिमान के इस अवसर पर भी विपक्षी दलों ने अपना विरोध जारी रखा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। विपक्ष के 20 दलों ने इस समारोह का बहिष्कार करके लोकतंत्र को विभाजित करने का प्रयास किया है। क्या देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था को राजनीति का विषय बनाना चाहिए? यह विवाद का विषय तो होना ही नही चाहिए की लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर का उद्घाटन राष्टपति करे या प्रधानमंत्री। राष्टपति देश की प्रथम नागरिक हैं उनके प्रति सम्मान होना चाहिए। लेकिन ये विपक्ष जो राष्टपति के प्रति आज इतना सम्मान दिखा कर सद्भावना का जो खेल खेल रहा है उसको समझने की जरूरत है। ये वही कांग्रेस हैं जिसने राष्टपति को राष्टपत्नी कहकर अपमानित करने का काम किया। और संसद भवन में उनके अभिभाषण का बहिष्कार कर संसदीय व्यवस्था को कलंकित किया हैं। इस विरोध से कुछ साफ होता है तो यही की भारत की राजनीति को अत्यंत निचले स्तर पर लाया जा चुका है। संवाद की संभावनाए समाप्त की चुकी हैं। यदि ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री के नाम से लगने वाला शिलापट उनके हृदय को विदीर्ण नही कर रहा होता। संसद के नए भवन का श्रेय नरेंद्र मोदी को ही जायेगा,। विपक्ष कुछ भी कहे , इतिहास में यही दर्ज होगा कि स्वतंत्र भारत में संसद के नये भवन का निर्माण नरेंद्र मोदी ने कराया। विपक्षी दल को इतना जरूर समझ होनी चाहिए की संसद भवन को श्रद्धा और आदरपूर्वक ही देखना चाहिए। उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करना प्रजातंत्र व्यवस्था का अपमान हैं।

*-नवनीत कुमार, बिहार*

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