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बाराबंकी : गांव में सजने लगी चुनावी जनसभा चर्चाओं का बाजार गर्म

सिरौलीगौसपुर, बाराबंकी। संध्या का समय ठाकुर दलजीत सिंह की हवेली पर चुनावी जन चर्चाओ का बाजार गर्म जो पुराने जमाने की बातों को याद करके अपने अतीत में खो जाते हैं।

ऐसा ही एक नजारा चुनावी जन चर्चाओ के दौरान क्षेत्र के ग्राम भवानीपुर ददरौली स्थित ठाकुर दलजीत सिंह की हवेली पर देखने को मिला 80 वर्षीय ठाकुर दलजीत सिंह पुरानी बातों को दोहराते हुए अतीत की यादो में खो जाते हैं उन्होंने अपने रुंधे हुए कंठ से बताया कि आजादी के बाद पहले आम चुनाव में अपनी सरकार चुनने को लेकर लोग गांव से कस्बे की ओर जाते थे तब लोगों में काफी उत्साह देखा जाता था पहली बार बूथ ेखने बनारसी बाग लखनऊ को पिताजी के साथ हम लोग गये थे उस समय वोटरों को बुलाने का कार्य करते थे उस समय मेरी उम्र 10 वर्ष के आसपास थी मत पेटी प्रत्याशियों के अनुसार होती थी जो जिसका समर्थक होता था वही उसी के बॉक्स मे छोटी सी पर्ची डाल देता था

शुरुआती दौर में सोशलिस्ट पार्टी बनी थी इसके अतिरिक्त जनसंघ सहित चार पार्टियां अन्य थी कांग्रेस मे लोगों का काफी रुझान था किसान पार्टी जिम्मेदार पार्टी थी पहला वोट हमने अपने गांव में जब छोड़ा था तो हम अपने आप में फूले नहीं समा रहे थे कि आज हमें मतदाता बनने का शुभ अवसर मिला तत्पश्चात 1957 में रैलियों में हमने भाग लेना शुरू कर दिया था

उस समय वर्तमान की अपेक्षा यातायात के साधनों का अभाव था तांगे और बैल गाडिय़ों के माध्यम से चुनावी प्रचार प्रसार किया जाता था जिन्हें समर्थक बैलगाड़ी पर लेकर जाते थे वही चंदा लगाकर झंडो और बिल्लो का वितरण होता था एक एक झंडे और बिल्ले के लिए छोटे- छोटे बच्चो को काफी मारामारी करनी पड़ती थी

वे दौर कितने हसीन थे हम सभी लोग अपने साथियों के साथ घर से खाना खाकर निकलते थे बाद में घर ही में खाना नसीब होता था गुड़ लाई चना खाकर पानी पीकर दिन कट जाता था रास्ते कच्चे थे परंतु खराब नहीं थे ।

उस जमाने के लोग ईमानदार थे और अपने वचन के पक्के थे जो वादे करते थे उन्हें बखूबी अक्षरस: निभाते थे समर्थक लोग छोटे -छोटे खर्च अपने पास से करते थे

उस समय कांग्रेस का चुनाव निशान पहले दो बैलों की जोड़ी फिर गाय बछड़ा के पश्चात पंजा खुलकर के सामने आया वहीं सोशलिस्ट का चुनाव निशान बरगद था लोकदल पार्टी का चुनाव निशान हल जोतता हुआ किसान था ।

उस समय के नेताओं की परिभाषा दूसरी थी जो समाज के दबे कुचले लोगों की सेवा भाव करने के लिए नेतागिरी करते थे अब वो भाव काफी पीछे चला गया चुनाव जीतने के पश्चात जनप्रतिनिधि गांव की ओर देखना मुनासिब नहीं समझते हैं जब चुनाव आता है तो पुन: गांव की खाक छानते हुए वे नजर आते है

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