मुकेश तिवारी, (वरिष्ठ पत्रकार) : तकरीबन 14 साल पहले शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने के मकसद से 12 अक्टूबर 2005 में यूपीए सरकार द्वारा लागू किए गए सूचना का अधिकार (राइट टू इनफार्मेशन आर.टी.आई .) कानून को काफी हद तक केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार ने संशोधन कर अप्रासंगिक बना दिया है इस पूरे प्रकरण में कड़वा सच तो यह है कि मोदी सरकार बिना बहस मुबाहिस के सूचना का अधिकार कानून के सेक्शन 13, 16 और 27 में अपने मनमाफिक संशोधन कर ऐसे अधिकारों से लेस हो गई है आरटीआई संशोधन विधेयक में खासतौर से प्रबंध किया गया है कि केंद्र और राज्य सूचना आयुक्त ओं का कार्यकाल वेतन भत्ते और सेवा की अन्य शर्तें आदि निर्धारित करने का अधिकार केंद्र सरकार को रहेगा अभी तक यह काम प्रधानमंत्री लोकसभा में नेता विपक्ष और पीएम द्वारा नाम निर्दिष्ट संघ की समिति करती थी लेकिन संकेत साफ हैं कि इन संशोधनों के लागू होने के बाद सूचना आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी। मालूम हो हाल ही में सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम को बड़ी चतुराई के साथ लोकसभा और राज्यसभा में सरकार पास करवा चुकी है दिलचस्प यह है कि आरटीआई कानून में संशोधन करने से पूर्व केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने इस मुद्दे पर बहस कराने की जहमत तक नहीं उठाई यह चिंता का विषय है
क्योंकि सूचना के अधिकार को कानूनी रूप देने से
पूर्व तत्कालीन यूपीए सरकार के समय में उस पर काफी बहस हुई थी सरकार से बाहर के लोगों से भी इस बावत चर्चा की गई थी ताज्जुब की बात है कि आखिरकार इतने महत्वपूर्ण कानून में संशोधन से पूर्व मोदी सरकार मुबाहिस से क्यों हिचकिचाई नए संशोधनों के बाद कांग्रे सहित सभी विपक्षी दलों सहित आरटीआई एक्टिविस्ट कामत है कि संशोधन के पश्चात सूचना का अधिकार नख दंत विहीन हो गया है हालांकि इस मुद्दे पर चौतरफा आलोचनाओं के पश्चात केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह की दलील थी कि सूचना का अधिकार कानून में नए संशोधनों के पश्चात कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है लेकिन उनकी दलील किसी के भी गले नहीं उतर रही आरटीआई एक्टिविस्ट और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार की नीति और नीयत में
खोट नहीं थी तो उसे गुपचुप ढंग से विधेयक पेश करने की जरूरत क्यों पड़ी सवाल उठ रहे हैं कि आरटीआई संशोधन विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा में मंजूरी मिल जाने के पश्चात सूचना आयोग की स्वायत्तता बिल्कुल समाप्त हो जाएगी यह एक कड़वा सच ही है कि अब जो भी शख्स सरकार की कृपा से सूचना आयुक्त की कुर्सी पर बैठेगा उसे सत्ता धारी दल के इशारे पर उसकी मंशा के अनुकूल काम करना होगा संयोग से सूचना का अधिकार शक्ति और सत्ता के दुरुपयोग में बाधक बन गया था इस कानून में अधिकारियों की हठधर्मिता विशेषाधिकार और भ्रष्ट शासन के चेहरे से नकाब उतार दिया था आरटीआई कानून सरकार और रसूखदार लोगों पर अंकुश लगाने में किस हद तक कामयाब रहा इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अब तक 80 आरटीआई एक्टिविस्ट को मौत के घाट उतारा जा चुका है असलियत यह है कि सूचना का अधिकार कानून में बदलाव करना सरकार की मजबूरी बन गई थी क्योंकि यह कानून सरकार और नौकरशाहों के गले की फांस बन गया था.