आम सभा, मुकेश तिवारी, ग्वालियर : संगीत की आयु कितनी होती है? कोई नहीं जानता, मगर संगीत साधना के बल पर अजर-अमर बना जा सकता है। दुनिया भर के संगीत साधकों ने यह सब प्रमाणित भी किया है, कि कालजयी संगीत सम्राट तानसेन भी संगीत दुनिया के ऐसे दैदीप्यमान साधक रहे हैं। जिनका नाम पॉंँच शताब्दियों से अनवरत रूप से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के शिखर पर प्रकाशमान है। यह अलग बात है कि 15वीं शताब्दी के विख्यात संगीतज्ञ तानसेन के बारे में जितने तथ्य हैं उससे कहीं ज्यादा किंवदंतियों ध्रुपद शैली के गायक और दीपक राग के विशेषज्ञ तानसेन के बारे में प्रचलित है, कि तानसेन का जन्म ग्वालियर जनपद के ग्राम बेहट में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मकरंद पाण्डे और मांँ का नाम कमला था। तानसेन को बचपन में सब तन्ना, त्रिलोचन, तनसुख और रामतनु के नाम से पुकारते थे। जहां तक तानसेन के बचपन की घटनाओं का संबंध है, वह किंवदंतियों और जन श्रुतियों में काफी उलझी हुई है। इस संबंध में असलियत सामने लाने के लिए अनुसंधान और शोध करने की आवश्यकता है। किंवदंती है कि, तानसेन जन्मजात गूंगे थे लेकिन बाल काल से ही संगीत के प्रति उनकी गहरी लगन थी। तन्ना पाण्डे अपने मवेशी को चराने के लिए प्रतिदिन झिलमिल नदी के किनारे ले जाते थे और फिर मवेशी को चरने के लिए छोड़कर वे पास के एक अति प्राचीन शिव मंदिर में शिव आराधना करने में मगन हो जाते थे।
इतिहास से जुडे़ जानकार बताते हैं कि तन्ना की भक्ति भाव से भगवान शिव इतने खुश हुए, कि उन्होंने तन्ना को साक्षात दर्शन देकर निर्देश दिया कि वह पूरी शक्ति से तान छेडं़े। शिव शंकर के आदेश पर तन्ना ने जैसे ही अपनी तान छेड़ी तो ताना की तान का आवेग इतना तीव्र था कि शंकर जी की छोटी सी मड़िया तक तेड़ी हो गई। स्वयं तन्ना भी इस चमत्कार से भौचक्के रह गए। इतिहासकारों के अनुसार तन्ना जैसे ही किशोरावस्था में आए तो वे संगीत की तालीम पाने के लिए गुरु की शरण में चले गए। गुरु ने जो सिखाया, प्रतिभाशाली तन्ना ने सीखा। उन्होंने पीर बाबा, मोहम्मद गौस से लेकर मथुरा के स्वामी हरिदास से संगीत के तमाम सारे गुर सीखे। तन्ना ने स्वामी जी से संगीत की तालीम लेने के साथ ही पिंगल शास्त्र भी सीखा। उन्हें गौस साहब से गायन की तालीम ली।
बताया जाता है कि तन्ना तानसेन को भारतीय संगीत के साथ ईरानी संगीत विद्या में भी दक्षता हासिल थी । तानसेन के बारे में जन श्रुतियां और इतिहास से जो निष्कर्ष निकलता है। उसके अनुसार तानसेन को संगीत से जो शोहरत मिली, वह स्वामी हरिदास और सूफी फकीर गौस मोहम्मद की देन थी। इतिहासकार गंगा सिंह भ्रमण, डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी, डॉ. सरायू प्रसाद अग्रवाल एवं शिव सिंह सेंगर के शोध का भी यही निष्कर्ष है। हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संगीत की विधिवत तालीम के लिए तानसेन ने स्वामी हरिदास और गौस मोहम्मद से उच्च शिक्षा लेने के पश्चात राजा मानसिंह तोमर द्वारा संचालित संगीत विद्यालय में भी दाखिला लिया था। संगीत की साधना करते-करते तन्ना पाण्डे जब तन्ना, त्रिलोचन, तनसुख और रामतनु से तानसेन हो गए तो उन्हें ध्रुपद में सिद्धहस्त माना जाने लगा।
तानसेन ने सर्वप्रथम शेरशाह सूरी के बेटे दौलत खान के यहां राजश्रय पाया और फिर बांधवगढ़ रीवा के राजा रामचंद्र के दरबारी गायक बने। बांधवगढ़ के दरबारी गायक रहते हुए उन्होंने अकूत दौलत, मान-सम्मान और ख्याति प्राप्त की। दिलचस्प बात है कि तानसेन उनका नाम नहीं था। वह उनकी उपाधि थी, जो उन्हें वांधवगढ़ के महाराज रामचंद्र से प्राप्त हुई थी। यह उपाधि इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसने उनके मूल नाम को गुमनाम कर दिया। मुगल सम्राट अकबर के पास जैसे ही उनके चमत्कारिक गायन की खबर पहुंची, तो उन्होंने उनको अपने दरबार में बुला लिया। सम्राट अकबर तानसेन की संगीत में हासिल महारत से इस कदर खुश हुए कि उन्होंने अपने दरबार के नवरत्नों में उन्हें प्रथम स्थान तक दे दिया।
उल्लेखनीय है कि तानसेन ने संगीत साधना के साथ ही संगीत शास्त्र पर आधारित तीन ग्रंथ संगीत सार, राग माला और गणेश स़़्त्रोत की रचना की थी। वहीं समय की मांग को देखते हुए उन्होंने ध्रुपद में चतुरंग और त्रिवट का गायन शुरू किया। उन्होंने अपनी संगीत की तपस्या को पूर्ण करने के लिए सितार से मिलती-जुलती वाद्य रबाव और रूद्रवीणा का भी आविष्कार किया। दरअसल में असलियत यह है कि तानसेन हकीकत में तानसेन थे। तानसेन यदि संगीत विद्या में पारंगत नहीं होते तो सम्राट अकबर उन्हें कंठाभरण,वाणी विलास उपाधि से अलंकृत नहीं करता।
कड़वा सच तो यह है कि इस कालजयी संगीतकार तानसेन की समाधि पर पूर्व में रसिक जन स्वप्रेरणा से तानसेन संगीत समारोह में शिरकत करने आते थे लेकिन बीसवीं सदी की शुरुआत में ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने बाकायदा इस महान संगीतकार की स्मृति में तानसेन की समाधि पर सालाना तीन दिवसीय उर्स का आयोजन प्रारंभ कराया।
ग्वालियर स्टेट की ओर से 1924 में पहला उर्स कराया गया, जो बेहद ही सफल रहा। गायक डॉ. प्रभाकर गोहदकर के मुताबिक पहले कार्यक्रम के दौरान तवायफ यहां अपनी प्रस्तुति देती थीं। तब लोग चार आने में टांगे से आयोजन स्थल पर पहुंचते थे। उस दौरान बिजली की भी समस्या थी। इसलिए संगीत प्रेमी स्वयं लालटेन लेकर जाते थे। उस वक्त बाबा कपूर की दरगाह पर रेबड़ी बांटी जाती थी। यह क्रम सन् 1954 तक चला। तब से लेकर अब तक संगीत सम्राट के सम्मान में तानसेन संगीत समारोह की यात्रा अनवरत रूप से जारी है। अभी तक 51 गायकों एवं संगीतज्ञों को इस ख्याति प्राप्त तानसेन संगीत सम्मान से नवाजा जा चुका है। इस बार यह सम्मान ग्वालियर घराने के पंडित विद्याधर व्यास को दिया गया। बताना होगा कि तानसेन अलंकरण सम्मान की शुरुआत वर्ष 1980 प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने की थी। वर्तमान में सम्मान पाने वाले कलाकार को दो लाख रुपए नकद की राशि और प्रशस्ति पट्टिका भेंट की जाती है।
– मुकेश तिवारी