![](http://dainikaamsabha.com/wp-content/uploads/2019/06/download-11-19.jpg)
मई के महीने में एक दिन 88 साल के अशरफ अली ने अपने परिवार से कहा कि वो रमजान में इफ्तार के लिए खाना लेने जा रहे हैं। खाना लाने की बजाय उन्होंने जहर खाकर अपनी जान ले ली। अली और उनका परिवार उस सूची में शामिल कर लिया गया था, जिसमें वो लोग हैं जिन्होंने साबित कर दिया था कि वे भारतीय नागरिक हैं।
लेकिन उनके शामिल होने को उनके पड़ोसी ने ही चुनौती दे दी और अली को फिर से अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए बुलाया गया था, अगर इसमें वे असफल होते तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। उनके गांव में रहने वाले मोहम्मद गनी कहते हैं, “उन्हें डर था कि उन्हें डिटेंशन सेंटर में भेज दिया जाएगा और उनका नाम अंतिम सूची से बाहर कर दिया जाएगा।”
असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजेंस (एनआरसी) को 1951 में बनाया गया था ताकि ये तय किया जा सके कि कौन इस राज्य में पैदा हुआ है और भारतीय है और कौन पड़ोसी मुस्लिम बहुल बांग्लादेश से आया हुआ हो सकता है।
40 लाख लोगों पर लटकी तलवार
भारत सरकार का कहना है कि राज्य में गैर कानूनी रूप से रह रहे लोगों को चिह्नित करने के लिए ये रजिस्टर जरूरी है। बीती जुलाई में सरकार ने एक फाइनल ड्राफ्ट प्रकाशित किया था जिसमें 40 लाख लोगों का नाम शामिल नहीं था जो असम में रह रहे हैं। इसमें बंगाली लोग हैं, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल हैं।
इस सप्ताह की शुरुआत में प्रशासन ने घोषणा की थी कि पिछले साल एनआरसी में शामिल किए लोगों में से भी एक लाख और लोगों को सूची से बाहर किया जाएगा और उन्हें दोबारा अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। 31 जुलाई को एनआरसी की अंतिम सूची जारी होगी, इसलिए रजिस्टर से बाहर किए गए लोगों में से आधे लोग खुद को सूची से बाहर किए जाने के खिलाफ अपील कर रहे हैं।
1980 के दशक के अंतिम सालों से ही रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया के साथ ही सैकड़ों ट्रिब्यूनल स्थापित किए जा रहे हैं। वे नियमित रूप से संदेहास्पद मतदाता या गैरकानूनी घुसपैठियों को विदेशियों के रूप में पहचान कर रहे हैं जिन्हें देश के निकाला जाना है।
51 लोगों ने की आत्महत्याएं
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि 2015 में जबसे सिटिजन रजिस्टर को अपडेट करने की शुरुआत हुई है, सूची से बाहर जाने की स्थिति में नागरिकता छिन जाने और डिटेंशन सेंटर में भेजे जाने के डर से बहुत से बंगाली हिंदू और मुस्लिम लोगों ने खुदकुशी कर ली है।
सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस संगठन के जामसेर अली ने असम में आत्महत्या के ऐसे 51 मामलों की सूची बनाई है। उनका दावा है कि इन आत्महत्याओं का संबंध, नागरिकता छिनने की संभावना से उपजे सदमे और तनाव से है। उन्होंने बताया कि इनमें से अधिकांश आत्महत्याएं जनवरी 2018 के बाद हुईं, जब अपडेट किए हुए रजिस्टर का पहला ड्राफ्ट सार्वजनिक किया गया।
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता प्रसेनजीत बिस्वास इस रजिस्टर को एक बहुत बड़ी मानवीय आपदा करार देते हैं जो धीरे धीरे विकराल बनती जा रही है और जिसमें लाखों नागरिक राज्यविहीन बनाए जा रहे हैं और उन्हें प्राकृतिक न्याय के सभी तरीकों से वंचित किया जा रहा है।
आत्महत्याएं बढ़ीं
असम पुलिस स्वीकार करती है कि ये मौतें अप्राकृतिक हैं, लेकिन उसका कहना है कि इन मौतों को नागरिकता पहचान को लेकर चल रही प्रक्रिया से जोड़ने के लिए उनके पास पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं।
एक शोधकर्ता अब्दुल कलाम आजाद, साल 2015 में जबसे रजिस्टर अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू हुई तबसे आत्महत्याओं का रिकॉर्ड रख रहे हैं। वो कहते हैं, “पिछले साल जबसे एनआरसी का फाइनल ड्राफ्ट प्रकाशित हुआ है तबसे इस तरह के मामले बढ़े हैं।”
उन्होंने बताया, “पीड़ितों से संबंधित लोगों से मैं मिलता रहा हूं। जिन लोगों ने खुदकुशी की उन्हें या तो संदेहास्पद मतदाता घोषित कर दिया गया था या एनआरसी सूची से उन्हें बाहर कर दिया गया था. ये बहुत दुखद है।”
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता जामसेर अली के अनुसार, असम के बारपेटा जिले में एक दिहाड़ी मजदूर 46 साल के सैमसुल हक ने पिछले नवंबर में आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी पत्नी मलेका खातून को सूची में शामिल नहीं किया गया था।
साल 2005 में मलेका को संदेहास्पद मतदाता घोषित कर दिया गया था लेकिन बारपेटा के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में वो ये मामला जीत गईं। इसके बावजूद उनका नाम वोटर लिस्ट या एनआरसी में शामिल नहीं हो पाया।
पीढ़ियों की त्रासदी
कुछ मामलों में एनआरसी की छाया ने कई पीढ़ियों पर अपना त्रासद असर डाला है। इसी साल मार्च में असम के उडालगिरी जिले में एक दिहाड़ी मजदूर 49 साल के भाबेन दास ने खुदकुशी कर ली. उनके परिवार ने कहा कि कानूनी लड़ाई के लिए लिए गए कर्ज को वो अदा नहीं कर सके थे।
दास के वकील ने एनआरसी में शामिल किए जाने की अपील की थी, इसके बावजूद उनका नाम जुलाई में जारी की गई सूची में शामिल नहीं हो पाया।
इस परिवार में एनआरसी को लेकर ये दूसरी त्रासदी थी, क्योंकि 30 साल पहले उनके पिता ने भी खुदकुशी कर ली थी क्योंकि उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कहा गया था। हालांकि उनकी मौत के कुछ महीने बाद ही ट्रिब्यूनल ने उन्हें भारतीय घोषित कर दिया था।
खरुपेटिया कस्बे में जब स्कूल टीचर और वकील निरोड बारन दास अपने घर में मृत पाए गए थे, तो उनके दोस्तों और रिश्तेदारों ने बताया कि उस समय उनके शव के पास तीन दस्तावेज मिले थे।
एक एनआरसी नोटिफिकेशन जिसमें उन्हें विदेशी घोषित किया गया था, एक सुसाइड नोट, जिसमें कहा गया था कि उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार नहीं है और पत्नी को लिखा गया पत्र जिसमें दोस्तों से लिए गए छोटे कर्ज को अदा करने की बात कही गई थी।
उनके भाई अखिल चंद्र दास ने कहा, “साल 1968 में वो ग्रैजुएट हुए थे और 30 सालों तक पढ़ाया। उनके स्कूल के सर्टिफिकेट से साबित होता है कि वो विदेशी नहीं थे। उनकी मौत के लिए एनआरसी लागू करने वाले अधिकारी जिम्मेदार हैं।”
हाल ही में भारत के एक पुरस्कार प्राप्त पूर्व सैनिक मोहम्मद सनाउल्लाह की कहानी प्रकाशित की थी। विदेशी घोषित किए जाने के बाद जून में उन्हें 11 दिनों तक डिटेंशन सेंटर में रखा गया, जिसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा हुआ।
डिटेंशन सेंटर से छूटने के बाद सनाउल्लाह ने कहा था, “मैंने भारत के लिए अपनी जिंदगी के लिए खतरा मोल लिया था। मैं हमेशा भारतीय रहूंगा। ये पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गड़बड़ है।”
सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी की अंतिम सूची बनाने के लिए 31 जुलाई तक की समय सीमा तय की है। असम की राज्य सरकार तेजी से ये सूची तैयार कर रही है। लाखों बंगाली हिंदू और मुस्लिम राज्य विहीन बनाए का सामना कर रहे हैं।
एक स्थानीय वकील हाफिज राशिद चौधरी कहते हैं, “एनआरसी ड्राफ्ट से बाहर किए गए 40 लाख लोगों में से कई अंतिम सूची में शामिल नहीं हो पाएंगे। हो सकता है कि ये संख्या आधे से भी ज्यादा हो।”