देशभर में गठबंधनों का दौर चल रहा है. सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए एनडीए और यूपीए अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं, साथ ही क्षेत्रीय दल भी अपना-अपना दांव आजमा रहे हैं. ज्यादातर राज्यों में पार्टियों की बीच होने वाले गठबंधन पर मुहर लग चुकी है और उनके बीच सीटों का बंटवारा भी हो चुका है, लेकिन बिहार में यूपीए के घटक दलों के बीच सीट बंटवारे को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है.
‘जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू’, नब्बे के दशक के इस नारे की धमक 2009 और 2014 लोकसभा चुनावों के नतीजों के साथ ही फीकी सी पड़ने लगी. अगर सिर्फ 2014 के आंकड़ों को ही आधार मानें तो 2019 में एनडीए गठबंधन एक बार फिर यूपीए गठबंधन पर भारी पड़ता नजर आ रहा है. वर्तमान एनडीए में बीजेपी और एलजेपी के अलावा नीतीश कुमार की जद (यू) को 2014 में मिले वोट को आधार बनाए तो एनडीए, यूपीए से बहुत आगे जाता दिखता है.
2014 लोकसभा चुनाव में मिले वोट के आधार पर बिहार की वर्तमान एनडीए (बीजेपी+एलजेपी+जद(यू) और यूपीए (कांग्रेस+आरजेडी+ लेफ्ट+RLSP+एनसीपी) का वोट प्रतिशत
NDA = 52 % & UPA = 36 %
2014 के चुनाव में जहां मुकाबला त्रिकोणीय था, इस बार हालात बदले-बदले से हैं. पिछले बार जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी गठबंधन ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला, मोदी लहर में बीजेपी ने एलजेपी और आरएलएसपी के साथ मिलकर 40 में से 31 सीटें जीत ली थीं. इस बार भी एनडीए को सबसे ज्यादा फायदा जेडीयू के साथ आने से हो रहा है, लेकिन यहां ये बताना जरूरी है कि 2014 लोकसभा चुनावों से पहले ही नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम का विरोध कर एनडीए से किनारा कर लिया था और बीजेपी ने नीतीश विरोध के नाम पर चुनाव लड़ा था.
अगर 2014 के आंकड़ों के आधार पर आंकलन करें और मौजूदा गठबंधन के वोटों को जोड़ दें तो 2019 में एनडीए गठबंधन बीजेपी की 22 में से 21, एलजेपी की छह और जेडीयू की दो सीटें बचा सकता है बल्कि लालू यादव की आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) की जीती अररिया, बांका, भागलपुर और मधेपुरा सीटों पर भी खतरा बन सकते हैं. 2014 में आरजेडी ने 40 में से सिर्फ इन 4 सीटों पर जीत हासिल की थी.