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भारतीय बाजार से लुप्त हो जाएंगे अखबार ?

डिजिटल माध्यमों से मिल रही हैं प्रिंट मीडिया को गंभीर चुनौतियां – प्रो. संजय द्विवेदी

दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार लुप्त हो जाएंगे। वर्ष 2008 में जे. गोमेज की किताब ‘प्रिंट इज डेड’ इसी अवधारणा पर बल देती है। इस किताब के बारे में लाइब्रेरी रिव्यू में एंटोनी चिथम ने लिखा,“यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप काल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” बावजूद इसके क्या खतरा इतना बड़ा है। क्या भारतीय बाजार में वही घटनाएं दोहराई जाएंगी, जो अमरीका और पश्चिमी देशों में घटित हो चुकी हैं। इन्हीं दिनों में भारत में कई अखबारों के बंद होने की सूचनाएं मिली हैं तो दूसरी ओर कई अखबारों का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ है। ऐसी मिली-जुली तस्वीरों के बीच में आवश्यक है कि इस विषय पर समग्रता से विचार करें।

क्या वास्तविक और स्थाई है प्रिंट का विकासः भारत के बाजार आज भी प्रिंट मीडिया की प्रगति की सूचनाओं से आह्लादित हैं। हर साल अखबारों के प्रसार में वृद्धि देखी जा रही है। रोज अखबारों के नए-नए संस्करण निकाले जा रहे हैं। कई बंद हो चुके अखबार फिर उन्हीं शहरों में दस्तक दे रहे हैं, जहां से उन्होंने अपनी यात्रा बंद कर दी थी। भारतीय भाषाओं के अखबारों की तूती बोली रही है, रीडरशिप सर्वेक्षण हों या प्रसार के आंकड़े सब बता रहे हैं कि भारत के बाजार में अभी अखबारों की बढ़त जारी है।

भारत में अखबारों के विकास की कहानी 1780 से प्रारंभ होती है, जब जेम्स आगस्टस हिक्की ने पहला अखबार ‘बंगाल गजट’ निकाला। कोलकाता से निकला यह अखबार हिक्की की जिद, जूनुन और सच के साथ खड़े रहने की बुनियाद पर रखा गया। इसके बाद हिंदी में पहला पत्र या अखबार 1826 में निकला, जिसका नाम था ‘उदंत मार्तण्ड’,जिसे कानपुर निवासी युगुलकिशोर शुक्ल ने कोलकाता से ही निकाला। इस तरह कोलकाता भारतीय पत्रकारिता का केंद्र बना। अंग्रेजी, बंगला और हिंदी के कई नामी प्रकाशन यहां से निकले और देश भर में पढ़े गए। तबसे लेकर आज तक भारतीय पत्रकारिता ने सिर्फ विकास का दौर ही देखा है। आजादी के बाद वह और विकसित हुई। तकनीक, छाप-छपाई, अखबारी कागज, कंटेट हर तरह की गुणवत्ता का विकास हुआ।

भूमंडलीकरण के बाद रंगीन हुए अखबारः हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों ने कमाल की प्रगति की। देश का आकार और आबादी इसमें सहायक बनी। जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी और समाज की आर्थिक प्रगति हुई अखबारों के प्रसार में भी बढ़त होती गयी। केरल जैसे राज्य में मलयाला मनोरमा और मातृभूमि जैसे अखबारों की विस्मयकारी प्रसार उपलब्धियों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसे ठीक से जानने के लिए राबिन जैफ्री के अध्ययन को देखा जाना चाहिए। इसी दौर में सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों ने अभूतपूर्व विस्तार और विकास किया। उनके जिलों स्तरों से संस्करण प्रारंभ हुए और 1980 के बाद लगभग हर बड़े अखबार ने बहुसंस्करणीय होने पर जोर दिया। 1991 के बाद भूमंडलीकरण, मुक्त बाजार की नीतियों को स्वीकारने के बाद यह विकास दर और तेज हुई। पूंजी, तकनीक, तीव्रता, पहुंच ने सारा कुछ बदल दिया। तीन दशक सही मायने में मीडिया क्रांति का समय रहे। इसमें माध्यम प्रतिस्पर्धी होकर एक-दूसरे को को शक्ति दे रहे थे। टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। वेब-माध्यमों का तेजी से विकास हुआ। अखबारों के मुद्रण के लिए विदेशी मशीनें भारतीय जमीन पर उतर रही थीं। विदेशी कागजों पर अखबार छापे जाने लगे थे।

यह वही दौर था जब काले-सफेद अखबार अचानक से रंगीन हो उठे। नवें दशक में ही भारतीय अखबारों के उद्योगपति विदेश कंपनियों से करार कर रहे थे। विदेशी पूंजी के आगमन से अखबार अचानक खुश-खुश से दिखने लगे। उदारीकरण, साक्षरता, आर्थिक प्रगति ने मिलकर भारतीय अखबारों को शक्ति दी। भारत में छपे हुए शब्दों का मान बहुत है। अखबार हमारे यहां स्टेट्स सिंबल की तरह हैं। टूटती सामाजिकता, मांगकर पढ़ने में आती हिचक और एकल परिवारों से अखबारों का प्रसार भी बढ़ा। इस दौर में तमाम उपभोक्ता वस्तुएं भारतीय बाजार में उतर चुकी थीं जिन्हें मीडिया के कंधे पर लदकर ही हर घर में पहुंचना था, देश के अखबार इसके लिए सबसे उपयुक्त मीडिया थे। क्योंकि उनपर लोगों का भरोसा था और है।

डिजिटल मीडिया की चुनौतीः डिजिटल मीडिया के आगमन और सोशल मीडिया के प्रभाव ने प्रिंट माध्यमों को चुनौती दी है, वह महसूस की जाने लगी है। उसके उदाहरण अब देश में भी दिखने लगे हैं। अखबारों के बंद होने के दौर में जी समूह के अंग्रेजी अखबार अंग्रेजी अखबार ‘डेली न्‍यूज एंड एनॉलिसि‍स’ (डीएनए) ने अपना मुद्रित संस्करण बंद कर दिया है। आगरा से छपने वाले अखबार डीएलए अखबार ने अपना प्रकाशन बंद कर दिया तो वहीं मुंबई से छपने वाला शाम का टेबलाइड अखबार ‘द आफ्टरनून डिस्पैच’ भी बंद हो गया, 29 दिसंबर,2018 को अखबार का आखिरी अंक निकला। जी समूह का अखबार डीएन का अब सिर्फ आनलाइन संस्करण ही रह जाएगा। नोटिस के अनुसार,अगले आदेश तक मुंबई और अहमदाबाद में इस अखबार का प्रिंट एडिशन 10 अक्टूबर,2019 से बंद कर दिया गया। वर्ष 2005 में शुरु हुए डीएनए अखबार ने इस साल के आरंभ में अपना दिल्ली संस्करण बंद कर दिया था, जबकि पुणे और बेंगलुरु संस्करण वर्ष 2014 में बंद कर दिए गए थे।

आगरा के अखबार डीएलए का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि एक वक्त आगरा समेत उत्तर प्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले इस दैनिक अखबार का यूं बंद होना वाकई प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री के लिए चौंकाने वाली घटना है। मूल तौर पर अमर उजाला अखबार के मालिकानों में शामिल रहे अजय अग्रवाल ने डीएलए की स्थापना अमर उजाला के संस्थापक स्व.डोरी लाल अग्रवाल के नाम पर की थी। अखबार ने शुरुआती दौर में अच्छा प्रदर्शन भी किया। पर उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अखबार के विस्तार के बाद ये गति थम गई। धीरे-धीरे अखबार एक बार फिर आगरा में ही सिमट कर रह गया। अखबार ने मिड डे टैब्लॉइड से शुरु किया अपना प्रकाशन एक समय बाद ब्रॉडशीट में बदल दिया था। साथ ही मीडिया समूह ने अंग्रेजी अखबार भी लॉन्च किया था। सब कवायदें अंतत: निष्फल ही साबित हो रही थी। ऐसे में लगातार आर्थिक तौर पर हो रहे नुकसान के बीच प्रबंधन ने फिलहाल इसे बंद करने का निर्णय किया है।

इसी तरह तमिल मीडिया ग्रुप ‘विहडन’ अपनी चार पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद कर दिया है। अब इन्हें सिर्फ ऑनलाइन पढ़ा जा सकेगा। जिन पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद होने जा रही है उनमें ‘छुट्टी विहडन’, ‘डाक्टर विहडन’, ‘विहडन थडम’ और ‘अवल मणमगल’ शामिल हैं। गौरतलब है कि 1926 में स्थापित यह मीडिया ग्रुप तमिलनाडु का जाना-माना पत्रिका समूह है। इस ग्रुप के तहत 15 पत्रिकाएं निकाली जाती हैं। इस ग्रुप ने 1997 में अपने प्रिंट संस्करणों को ऑनलाइन रुप से पाठकों को उपलब्ध कराना शुरु कर दिया था। वर्ष 2005 में इसने ऑनलाइन सबस्क्रिप्शन मॉडल को फॉलो करना शुरु कर दिया।

कारणों पर बात करना जरूरीः किन कारणों से ये अखबार बंद रहे हैं। इसके लिए हमें जी समूह के अखबार डीएन के बंद करते समय जारी नोटिस में प्रयुक्त शब्दों और तर्कों पर ध्यान देना चाहिए। इसमें कहा गया है कि-“हम नए और चैलेजिंग फेस में प्रवेश कर रहे हैं। डीएनए अब डिजिटल हो रहा है। पिछले कुछ महीनों के दौरान डिजिटल स्पेस में डीएनए काफी आगे बढ़ गया है।… वर्तमान ट्रेंड को देखें तो पता चलता है कि हमारे रीडर्स खासकर युवा वर्ग हमें प्रिंट की बजाय डिजिटल पर पढ़ना ज्यादा पसंद करता है। न्यूज पोर्टल के अलावा जल्द ही डीएनए मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया जाएगा, जिसमें वीडियो बेस्ट ऑरिजिनल कंटेंट पर ज्यादा फोकस रहेगा।…कृपया ध्यान दें, सिर्फ मीडियम बदल रहा है, हम नहीं, अब अखबार के रूप में आपके घर नहीं आएंगे, बल्कि मोबाइल के रूप में हर जगह आपके साथ रहेंगे।” यह अकेला वक्तव्य पूरे परिदृश्य को समझने में मदद करता है।

दूसरी ओर डीएलए –आगरा के मालिक जिन्हें अमर उजाला जैसे अखबार को एक बड़े अखबार में बदलने में मदद की आज अपने अखबार को बंद करते हुए जो कह रहे हैं, उसे भी सुना जाना चाहिए। अपने अखबार के आखिरी दिन उन्होंने लिखा,“ परिर्वतन प्रकृति का नियम है और विकासक्रम की यात्रा का भी।…सूचना विस्फोट के आज के डिजिटल युग में कागज पर मुद्रित(प्रिंटेड)शब्द ही काफी नही। अब समय की जरूरत है सूचना-समाचार पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचे।… इसी उद्देश्य से डीएलए प्रिंट एडीशन का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित किया जा रहा है। ”

इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार और कई अखबारों के संपादक रहे श्री आलोक मेहता का आशावाद भी देखा जाना चाहिए। हिंदी अखबार प्रभात खबर की 35वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में रांची के रेडिशन ब्लू होटल में आयोजित मीडिया कॉन्क्लेव आयोजन में उन्होंने कहा, “बेहतर अखबार के लिए कंटेंट का मजबूत होना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि टेक्नोलॉजी बदलने अथवा टीवी और सोशल मीडिया के आने से अखबारों का भविष्य खतरे में है। ऐसा होता, तो जापान में अखबार नहीं छपते, क्योंकि वहां की तकनीक भी हमसे बहुत आगे है और मोबाइल भी वहां बहुत ज्यादा हैं। अखबारों को उस कंटेंट पर काम करना चाहिए, जो वेबसाइट या टीवी चैनल पर उपलब्ध नहीं हैं। प्रिंट मीडिया का भविष्य हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा।”

उपरोक्त विश्वेषण से लगता है कि आने वाला समय प्रिंट माध्यमों के लिए और कठिन होता जाएगा। ई-मीडिया, सोशल मीडिया और स्मार्ट मोबाइल पर आ रहे कटेंट की बहुलता के बीच लोगों के पास पढ़ने का अवकाश कम होता जाएगा। खबरें और ज्ञान की भूख समाज समाज में है और बनी रहेगी, किंतु माध्यम का बदलना कोई बड़ी बात नहीं है। संभव है कि मीडिया के इस्तेमाल की बदलती तकनीक के बीच प्रिंट माध्यमों के सामने यह खतरा और बढ़े। यहां यह भी संभव है कि जिस तरह मीडिया कंनवरर्जेंस का इस्तेमाल हो रहा है उससे हमारे समाचार माध्यम प्रिंट में भले ही उतार पर रहें पर अपनी ब्रांड वैल्यू, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ई-माध्यमों, मोबाइल न्यूज एप, वेब मीडिया और सोशल मीडिया पर सरताज बने रहें। तेजी से बदलते इस समय में कोई सीधी टिप्पणी करना बहुत जल्दबाजी होगी, किंतु खतरे के संकेत मिलने शुरु हो गए हैं, इसमें दो राय नहीं है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)

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