आम सभा, भोपाल : पाबंदियों और मनाइयों का हमारे देश में क्या हश्र होता है इसे आसानी से जाना जा सकता है लेकिन कानूनी तौर पर भी पाबंदियां लगाने में गुरेज नहीं किया जाता पाबंदी के माध्यम से समस्या का तुरंत-फुरत हल निकाल लिया जाता है और उम्मीद की जाती है कि अध्यादेश जारी होते ही लोग उसे मानना शुरू कर देंगे लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं पाबंदियां मजाक बन कर रह जाती हैं और मनाइयां बेमौत मर जाती हैं खासतौर पर आबादी के बड़े हिस्से में फैली समस्या के निवारण के लिए लगी पाबंदियां वजह यह है कि ऐसी पाबंदियों नींव को लागू करने की यंत्रणा किसी सरकार के पास नहीं है मसलन सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान कानूनी तौर पर अपराध है लेकिन इसका पालन करवाना मुमकिन नहीं इसलिए बेखौफ धुएं के छल्ले उड़ाते लोग पहले की ही तरह मौजूद हैं दरअसल में कानूनी तौर पर निरोधक कार्यवाही माना गया है उपाय किसी छोटे समूह पर तो कारगर हो सकता है लेकिन विशाल तबके पर नितांत बेमानी है।
इलेक्ट्रॉनिक यानी ई- सिगरेट के उत्पादन बिक्री भंडारण प्रचार लाने ले जाने और निर्यात को प्रतिबंधित करने के लिए पिछले माह केंद्र द्वारा जारी अध्यादेश की भी इसी श्रेणी में आता है तथ्य है कि इसके उपयोग से कैंसर जैसा असाध्य रोग होता है यह भी तथ्य है कि किशोर किशोरियों में इसकी लत बढ़ती जा रही है लेकिन यह किसी से ढका छिपा नहीं है कि प्रतिबंध लगाने मात्र से यदि लत छूटती तो अब तक दुनिया से नशे का सारा सामान ओझल हो गया होता उपाय यही है कि सेहत को बर्बाद करने वाली ऐसी जहरीली चीजों के बारे मैं उस तबके को विशेष रूप से शिक्षित किया जाए जिसमें इनका ज्यादा प्रचलन है यह भी एक तरह का लोक जागरण है जिसमें सरकारें सहयोग तो दे सकती हैं।
लेकिन खुद इसका संचालन नहीं कर सकती सरकारें हद से हद इनके बनने से ज्ञात ठिकानों पर ताले डलवा सकती हैं हालांकि भारत में ई सिगरेट का विनिर्माण नहीं होता है यह आयत की जाती है लोगों को इ सिगरेट की भयावहता के बारे में मनवाने का काम दीर्घकालीन तो है लेकिन दुशवार नहीं आखिर पाबंदियां तभी कारगर होती है जब लोग पूरे मनयोग से तैयार होते हैं।