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संत कबीर जयन्ती 4 जून पर विशेष

संत कबीर का जीवन दर्शन मनुष्य को नारायणत्व की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है

*-डॉ. राघवेन्द्र शर्मा

जब कभी भी हम अपने मन और मस्तिष्क में किसी संत अथवा महात्मा के व्यक्तित्व को धारण करते हैं तो जो आकृति मानस पटल पर उभरती है, वह भाल पर त्रिपुंड धारी, तन पर गेरुआ वस्त्र, गले में रुद्राक्षों की माला, हाथ में कमंडल और पैरों में खड़ाऊ धारण किए रूप में उभरती है। किंतु संत कबीर इस पूरे आभामंडल से रहित एक आम ग्रहस्थ और सामान्य कारोबारी दिखाई देते हैं। जो किसी आम आदमी की तरह ही अपनी गृहस्थी को चलायमान रखने के लिए प्रतिदिन जीवन की प्रतिकूलताओं से जूझते रहते हैं। उनके तन पर वह परिधान भी अच्छादित नहीं है जो एक संत के व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करने वाला माना जाता है। संत कबीर कर्म के आधार पर मनुष्य को धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्ति का आश्वासन नहीं देते। यह तो कभी कहते ही नहीं की फलां कर्मकांड करके जीव स्वर्ग की प्राप्ति कर सकता है। फिर भी संत कबीर असाधारण हैं, महात्मा हैं और उच्च कोटि के संत भी। कारण – उनका जीवन दर्शन यह सुनिश्चितता प्रदान करता है कि यदि आप आम जनजीवन और दैनिक दिनचर्या में उनके जीवन दर्शन का अनुसरण भर कर लें तो व्यक्ति को अर्थ धर्म काम और मोक्ष की प्राप्ति भले ना हो पाए, किंतु उसका वर्तमान जीवन थोड़ा आसान, थोड़ा सकारात्मक, थोड़ा सहज और समाज के लिए थोड़ा सुकून प्रदान करने लायक तो हो ही जाएगा। उदाहरण के लिए – कवि लिखते हैं
*बड़े भए तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।*
*पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।*
इस दोहा में निसंदेह ईश्वर प्राप्ति का आश्वासन नहीं है। लेकिन इसमें निहित संदेश मनुष्य को नारायणत्व की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। दरअसल संत कबीर यह समझाते हैं कि मनुष्य धन, बल और पद से कितना भी बड़ा क्यों ना हो जाए, उसे उदारता, विनम्रता और समरसता का भाव कभी नहीं त्यागना चाहिए। बस इतना भर कर लेने से मनुष्य को जिस आभामंडल और शांतिदाई जीवन की प्राप्ति होगी, वही तो देवत्व स्तरीय सुख का आभास है। उनकी एक और रचना है –
*माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।*
*इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी तोय।।*
कितना स्पष्ट संदेश है! मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है। इस बात को सदैव ही याद रखा जाए, तो हम जीवन पर्यंत उस आपाधापी और ऊंच नीच युक्त आवांछनीय कुत्सित कर्मों से से बचे रहेंगे, जो कुछ ज्यादा, और ज्यादा प्राप्ति की प्रत्याशा में हमारे द्वारा किया जाता रहता है। अर्थात भौतिक पद, प्रतिष्ठा और कामना की हरसंभव प्राप्ति के लिए किया जाने वाला हमारा अथक परिश्रम किसी काम का नहीं। क्योंकि अंततः तो हमें इस जगत से खाली हाथ ही जाना है। तो फिर मनुष्य को क्या चाहिए? जिससे वह मृत्यु पश्चात धर्म, अर्थ, काम मोक्ष भले ना पा सके, किंतु जीवन तो धन्य हो ही जाए। तो इसका समाधान संत कबीर के निम्नलिखित दोहे में स्पष्ट दिखाई देता है-
*साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय।*
*मैं भी भूखा ना रहूं, अतिथि भूखा ना जाए।।*
आशय स्पष्ट है। हमें इतना धन, संसाधन और सामर्थ्य नहीं चाहिए, जिससे सात पीढ़ियों का उद्धार किया जा सके। केवल इतने संसाधन उपलब्ध हो जाएं, जिससे सुबह के वक्त शाम के भोजन की चिंता ना रहे और जब शाम हो तो सुबह पेट भरने की समस्या सामने आन खड़ी न हो। बस इतना भर हो जाए अथवा हम हासिल कर लें। फलस्वरूप हमें वह शांति, संतुष्टि प्राप्त होने वाली है जो जीव को ईश्वर की ओर ले जाती है। क्योंकि जब जीव स्वयं संतुष्ट रहता है तथा अपने इर्द-गिर्द स्थापित समाज को भी संतुष्टि और तृप्तता प्रदान कर पाता है, तब वह ईश्वरत्व की ओर बढ़ने लगता है। बस! यही सही मायने में धर्म, अर्थ और काम मोक्ष की ओर बढ़ने वाला पहला कदम है। जिसमें हमें ना तो कोई बड़ा कर्मकांड करना है और ना ही कठोर तपस्या करने की आवश्यकता है। बस, मन हरि भजन में लगा रहे। वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। कल की चिंता ना रहे और दूसरों की सेवा करने का सामर्थ्य बना रहे। तो फिर मन स्वतः ही ईश्वर सेवा की ओर अग्रसर होगा। जिससे हम अंततः उस लक्ष्य की प्राप्ति को हासिल कर ही लेंगे जो बड़े-बड़े धर्म शास्त्रों में दर्शाया गया है । संक्षिप्त सार यह कि संत कबीर के बेहद साधारण से दिखने वाले दोहे सही मायने में इतनी बेशकीमती और असाधारण हैं कि उन्हें सहज भाव से आत्मसात करने पर हम इस लोक के अलावा परलोक में भी अपनी आत्मिक यात्रा को अंततः सुनिश्चित प्रदान कर ही लेते हैं।

*लेंखक- भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय मंत्री एव वरिष्ट पत्रकार हैं*

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