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केरल स्टोरी फिल्म में कुछ भी नया नहीं


* (संक्षिप्त समीक्षा)

हर काल, समाज और परिस्थिति के अनुसार हिंदी सिनेमा की फिल्में आती हैं और आती रहेंगी। विगत पांच सालों में सामाजिक प्रताड़ना, बहु कारक वादी सिद्धांत पर आधारित
* आर्टिकल ३१५ ,
* जयभीम और
* जयंती के बाद
* कश्मीर फाइल्स
* केरला स्टोरी समकालिक चर्चित फिल्में हैं ।
समाज के वंचित लोगों का शोषण , अत्याचार और युवाओं को सुसंगठित तरीके से आकर्षित कर मास्टर माइंड संगठित अपराधिक समूह कैसे एक व्यक्ति को वस्तु जैसे उपयोग में लाकर उसे अपराधी बना देते हैं । यह प्रश्न धार्मिक आंधी आस्था, सामाजिक नियमों और कानून के परिवर्तन पर ध्यान आकर्षित करते हैं। केरल स्टोरी फिल्म में विशेष कर तीन घटनाओं का चित्रण करके डायरेक्टर ने यह बताने का सफल प्रयास किया है कि किस तरीके से एक धर्म विशेष के लोग छात्राओं का ब्रेन -वास् करके उनका धर्म बदलते हैं और यहां तक कि उनको आतंकवादी तक बना देते हैं ।
फिल्म बैक फ्लैश चलते हुए इंट्रोगेशन में नायिका अपने अपनी और अपनी सहेलियों की आप बीती बताती है। अंत अच्छा इसलिए है कि न्याय व्यवस्था सारी सहानुभिति के साथ स्वत: शिकार नायिका को माफ़ नहीं करती।
इस फिल्म का चित्रण पात्रों का अभिनय और सभी प्रकार का कलात्मक प्रयोग देखने लायक हैं। लेकिन दर्शकों यह शिक्षा लेनी होगी कि जब हम अपने बच्चों को किसी हॉस्टल में या किसी शहर में नौकरी के लिए भेजते हैं तब हम उनके हाव भाव, व्यवहार के साथ-साथ स्थानीय लोगों का क्या प्रभाव पड़ रहा है? और उनका चाल चलन कैसा हो रहा है?
इन सब बातों पर भी हमको ध्यान रखने की जरूरत है। दूसरी ओर सच्ची बात यह होती है जो विद्यार्थी जिस उद्देश्य से जो कोर्स करने जाता है या पढ़ाई करने जाता है। उसको उस पर ही फोकस करना चाहिए ना कि सुनी सुनाई बातों पर या कहा जाए कि उन लोगों पर ध्यान देना चाहिए जो उन्हें गलत मार्ग पर ले जा सकते हैं। कोई भी बात,घटना, वारदात होने से पहले उसकी परछाई समझदार बच्चा / आदमी देख लेता है कि आगे चलकर उनकी स्टोरी का क्या होगा ?
बात किसी राज्य की नहीं है,,हर दिन हर पल ,हर आदमी, हर संस्था अपने तरीके से और अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम जो एक आकर्षण पैदा करके डायवर्ट करते हैं। बच्चे क्या बड़े बूढ़े भी मी टू के शिकार होते हैं । अब आपके क्रिया कर्म/ कृत्य ही नहीं आपकी बोली / भाषा पर कानून हथौड़ा बजा देता है।
छात्र इतने नादान कैसे हो जाते हैं कि अपनी परिवार की गरिमा, संस्कार और परवरिश को एक पल में भुला कर पहले शौक में नशा करते हैं फिर नशे से खुद का नाश कर लेते हैं।
फिर भी मेरा मानना है कि प्राथमिक और द्वितीयक संस्थाओं को अपनी महीति भूमिका निभाने की जरूरत है। सरकार, कानून बाद में आयेंगे पहले हमारा पालन पोषण और पारिवारिक वातावरण/ अनुशासन पर विशेष ध्यान रखना चाहिए।

*-राजेंद्र रंजन गायकवाड*
(एमए अपराध शास्त्र 1982), सेवा निवृत्त केंद्रीय जेल अधीक्षक

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