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राष्ट्र चिंतन : अधिकारों की चाहत नहीं, उत्तरदायित्व फिक्र होनी चाहिए

वर्तमान के इस दौर में जब देश में लोकतंत्र अपनी अस्मिता बचाने की जद्दोजहद में है वहां समाज का हर नागरिक अपने लिए अधिक से अधिक अधिकारों की इच्छा रखता है ताकि पूरी स्वतंत्रता का उपभोग कर सके। इसी के फलस्वरूप हर रोज अधिकारों की बढ़ती मांग और कर्तव्य की अवहेलना से समाज वातावरण में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। वॉलटेयर जी ने इस संदर्भ में ठीक ही कहा है कि अधिकार बढ़ने के साथ-साथ समानुपातिक रूप से उत्तरदायित्व भी धीरे-धीरे बढ़ जाता है हमें अपने अधिकारों के साथ अपनी जिम्मेदारियों का भी ज्ञान बोध होना जरूरी है। आपको ऐसा नहीं लगता है कि अधिकार तथा उत्तरदायित्व समानुपातिक है और समाज में हर व्यक्ति समुदाय के साथ संग संग चलते हैं। ऐसा कुछ है कि स्वतंत्रता और खुलेपन के संग उत्तरदायित्व जी जीवन की यात्रा में सहयात्री है। स्वतंत्रता या खुलेपन का अतिक्रमण किसी व्यक्ति के दायित्वों का हनन है हम जहां जिस ग्राम नगर अथवा देश में रहते हैं वहां पर यह सुनिश्चित है कि अधिकार एवं जिम्मेदारी हमारे साथ साथ विचरण करते दिखाई देते हैं। भारतीय संविधान में अधिकारों की मीमांसा करते हुए यह मूल रूप से माना गया है कि यहां देश में मूल अधिकारों को महत्व इसीलिए दिया जाता है की भारतीय जनमानस का बड़ा प्रतिशत अशिक्षित है अतः संविधान अशिक्षित व्यक्तियों के लिए ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्रता और समानता प्रदाय कर सके ताकि फिर कोई समाज या राज्य उसका हनन न कर सके, दूसरी तरफ यदि कर्तव्य की बात करें तो सदैव यह हिदायत दी जाती रही है कि भारत की जनता अधिक मात्रा में अशिक्षित हैं अतः उन्हें अपने दायित्वों का ज्ञान तथा अनुभूति नहीं होगी और दायित्व और कर्तव्यों के बीच बड़ी लक्ष्मण रेखा खिच गई है।
व्यक्ति और समाज जैसे जैसे विकसित होता गया है और आधुनिकता के इस दौर में नागरिकों की अधिकारों की मांग बढ़ती जा रही है। हमें अधिकार धीरे-धीरे मिल भी रहे जिस तरह माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार की श्रृंखला में रखकर नागरिकों की स्वतंत्रता को सुरक्षित बनाने का प्रयास किया है। अब ऐसे में हमारा दायित्व बनता है कि हम अपनी निजता के अधिकार को अपने पास रखते हुए दूसरे की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नुकसान ना पहुंचाएं या उसकी स्वतंत्रता पर अतिक्रमण न करें, जिससे जिम्मेदारी और कर्तव्य बोध संग संग चलते रहे और सामाजिक परिवेश का कर्तव्य तथा अधिकार के बोध में सामंजस्य बना रहे। हम अपने व्यक्तिगत हित के कारण यह तथ्य विस्मित कर देते हैं कि हम एक लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक हैं और हमें लोक कल्याण की अवधारणा को मूर्त रूप देना है जिससे कि राष्ट्र का विकास संभावित है। हम अपने आधुनिकता के चलते अपने दायित्व और मूल्यों के प्रति असावधान होते जा रहे हैं भारतीय समाज में बदलते समय के साथ नागरिक नैतिक मूल्यों की परवाह किए बगैर अपनी स्वच्छंदता एवं शक्ति के बल पर मनमानी तथा भ्रष्टाचार निरंकुशता को सर्वोपरि बनाने में लगे हुए है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत देश के आम नागरिकों के द्वारा राजनीतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों को विधिवत चुनकर संसद तथा विधान भवन भेजती है ताकि राज्य और देश का कल्याण हो सके किंतु अपने अधिकारों के प्रति उत्साहित यह राजनेता अपने मूलभूत कर्तव्य को भूलकर जनता का शोषण करने में लीन हो गए हैं और अधिकार संपन्न होकर निरंकुशता की श्रेणी में आकर बैठ गए हैं। इन जनप्रतिनिधियों ने अपने अधिकार तथा उत्तरदायित्व में तालमेल न बिठा कर शासन की व्यवस्था को बिगाड़ कर रखा है।
अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने लिखा है कि जिस देश की आम जनता झोपड़पट्टी में रह रही हो उस देश के शासक प्रशासक को महलों में रहने का कोई अधिकार नहीं बनता है। यह बात उन्होंने बहुत पहले कही थी पर यह आज भी अत्यंत प्रासंगिक तथा समीचीन है। वर्तमान में देश में यह बात तो एकदम स्पष्ट है कि हमें अपने अधिकारों को तब भली-भांति ज्ञान व बोध है किंतु उत्तरदायित्व के प्रति हम जानबूझकर अनजान बने हुए हैं यह देश के विकास के लिए उचित नहीं है इससे देश के विकास में बाधा होती है। अधिकारों तथा उत्तरदायित्व के संदर्भ में कई समितियों ने बड़ी ही नकारात्मक अनुशंसा प्रस्तुत की है जिसमें इस बात का हवाला है कि राजनीति तथा प्रशासन में सब तरफ लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद फैला हुआ है क्योंकि हमारे राजनेता शासक प्रशासक अपने अधिकारों का तो समुचित प्रयोग करते हैं किंतु उत्तरदायित्व के मामले में अपने आप को अनभिज्ञ बताते हुए जनता के सामने हाथ खड़े करके निरीह बने रहते हैं।
सरकारी सुविधाओं का उपयोग करना तो हमारा अधिकार है पर उसका रखरखाव और उससे साफ सुथरा रखना हमारा दायित्व भी है किंतु हम अपने दायित्व के प्रति आंखें बंद कर अधिकारों के लिए अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। एक संकट जैसे कि पर्यावरण संकट किसी व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए नहीं है यह वैश्विक समस्या है और यदि हम इसके प्रति सजग नहीं हुए तो 1 दिन संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था पृथ्वी धरा नष्ट हो जाएगी और मनुष्य सांस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी को तरसने लगेगा।
यह हमारा नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम सत्य निष्ठा के साथ सदाचारी बनकर नैतिकता को अपने व्यवहार में उतार कर अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर अपने अधिकारों के साथ मूल दायित्व को भी उतनी ही गंभीरता से उपयोग में लाएं जिससे व्यक्ति समाज और राष्ट्रहित हो सके।

*-संजीव ठाकुर*
स्तंभकार, चिंताक, लेखक ,रायपुर छत्तीसगढ़
मो- 9009415415

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