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राष्ट्र चिंतन : भारत के विकास का मूल मंत्र धर्मनिरपेक्षता है, धर्मनिरपेक्षता से मजबूत होता लोकतंत्र

धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र को सशक्त करने हेतु एक महत्वपूर्ण संवेदनशील एवं शाश्वत सिद्धांत है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीति का मूल आधार तत्व हैl जिसमें राजनीतिक दलों को भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण भूमिका अंतर्निहित है। धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का बड़ा विरोधी भाव है। इसमें धर्म के प्रति विद्वेष का भाव नहीं होता है, बल्कि सभी धर्मों का समान आदर किया जाता है।इस आधुनिक काल में धर्मनिरपेक्षता सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांत में प्रस्तुत सर्वाधिक जटिल शब्दों में एक है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ पाश्चात्य तथा भारतीय संदर्भ में अलग-अलग हैl भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य समाज में विभिन्न धार्मिक मतों का अस्तित्व मूल्यों को बनाए रखने सभी मतों का विकास और समृद्धि करने की स्वतंत्रता का तथा साथ ही साथ सभी धर्मों के प्रति एक समान आदर तथा सहिष्णुता विकसित करना है। पश्चिमी संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जहां धर्म और राज्यों का एक दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करना तथा व्यक्तियों और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्व दिया जाना शामिल है। यद्यपि भारतीय धर्मनिरपेक्षता मैं पश्चिमी भाव तो शामिल हैं साथ-साथ कुछ अन्य भाव भी शामिल किए गए हैं। धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति समाज या राष्ट्र अभाव होता है, जो किसी विशेष धर्म या अन्य धर्मों की तुलना में पक्षपात नहीं करता है।
भारतीय संदर्भ धर्मनिरपेक्षता की आजादी के बाद बड़ी स्वच्छ एवं स्वस्थ सार्वभौमिक परंपरा रही है। इसमें किसी व्यक्ति से धर्म और संप्रदाय के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। प्रत्येक नागरिक को इसके अंतर्गत स्वतंत्रता प्राप्त होती है कि वह अपनी इच्छा अनुसार किसी भी धर्म को अपनाएं एवं किसी भी व्यक्ति के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करें, भारत में धर्म और राजनीति को एक दूसरे से अलग तथा पृथक रखने की हमेशा कोशिश की गई है। भारत में राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है, यहां राज्य की नजर में सब एक समान है। भारत में धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों को समानता का दर्जा प्रदान किया गया है। सभी धर्मों के नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सभी धर्मों के नागरिकों को समान आदर व इज्जत से व्यवहार करें। भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य के सभी धर्मों को विकास का समान अवसर देती है, इस प्रकार यह माना जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षता सर्वधर्म समभाव पर विशेष महत्व देकर उस पर केंद्रित करती है। धर्मनिरपेक्षता के अंतर्गत तर्क और विवेक की प्रधानता होती है, सभी व्यक्ति को सब कुछ कहने और विचार करने की स्वतंत्रता होने के साथ-साथ वैज्ञानिक आविष्कारों को भी पूर्ण अधिकार के साथ प्रोत्साहित भी किया जाता हैl भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता से विविधता में एकता को बल मिलता है। हालांकि कुछ राजनीतिक दलों ने समय-समय पर भारतीय धर्मनिरपेक्षता को सत्ता प्राप्त करने हेतु कमजोर करने की कोशिश की है, यह हमारी जिम्मेदारी तो है ही साथ ही आम जनता, राजनीतिक दलों,मीडिया एवं सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की महती जिम्मेदारी है कि भारतीय संविधान के अनुरूप धर्मनिरपेक्षता का राजनीतिक, सामाजिक जीवन में पालन करें, जिससे हमारे देश का लोकतंत्र और अधिक सुदृढ़ होकर विश्व के लिए एक आदर्श प्रतिमान प्रस्तुत करें। आजादी के पूर्व तथा आजादी के पश्चात महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री आदि नेताओं का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास था। स्वतंत्रता के पूर्व राष्ट्रीय आंदोलन से पहले ही सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन ने धर्मनिरपेक्षता का मार्ग प्रशस्त कर दिया था,और स्वतंत्रता के बाद भारत में धर्मनिरपेक्षता की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई गई है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति को समानता स्वतंत्रता व न्याय जैसे मानव अधिकार प्राप्त हैं। और इन अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता को माना गया है, इसके अभाव में राज्य में समानता व धर्म निरपेक्षता की स्थापना नहीं की जा सकती हैl भारत की सबसे बड़ी विशेषता विविधता में एकता ही रही है, विविधता में एकता का मूल मंत्र ही धर्मनिरपेक्षता का है। भारत में अल्पसंख्यक भी इसी देश के निवासी हैं और इनको विश्वास दिलाने तथा इनकी रक्षा करने का मार्ग प्रशस्त धर्मनिरपेक्षता के अस्त्र के रूप में किया गया हैl भारत देश निरंतर विकास के सोपान की तरफ अग्रसर है और एक वैश्विक महाशक्ति बनने की दिशा में प्रशस्त भी है।इन परिस्थितियों में विश्व के समक्ष धर्मनिरपेक्ष था की एकता का आदर्श स्थापित करने की परम आवश्यकता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना के 42 वें संशोधन 1976 के अंतर्गत पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है, जिसका मतलब राज्य सभी मतों को समान रूप से रक्षा करेगा एवं स्वयं भी किसी मत को राज्य के धर्म के रूप में नहीं अपनाएगा। भारत का संविधान हमें विश्वास दिलाता है कि उसके साथ धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगाl भारत का संविधान पूर्ण रूप से भारतीय जनमानस की व्यक्तिगत, जातिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए ही निर्मित किया गया हैl न्यायपालिका तथा कार्यपालिका इस हेतु संपूर्ण रुप से प्रतिबद्ध भी हैं। किंतु भारतीय संदर्भ में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राजनीतिक दलों पर लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने की जिम्मेदारी है, वही लोग अपने स्वार्थ पर राजनीति के लिए मुद्दों को चुनावी हथियार बनाते हैं जिसका शिकार आम जनता को होना पड़ता है। इसके कारण समाज का माहौल बिगड़ जाता है। यह संपूर्ण रूप से एक चिंता का विषय है ।भारत में स्वतंत्रता के बाद से लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत बड़े ही मजबूत रहे हैं और इसकी स्वस्थ परंपरा भी भारत देश में रही है। इसे हमेशा मजबूत एवं शाश्वत बनाने की आवश्यकता वर्तमान में प्रतीत होती है।

*-संजीव ठाकुर*
स्तंभकार, लेखक, चिंतक, रायपुर छत्तीसगढ़, 9009 415 415,

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