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यूं ही नही बनी रानी से मां और फिर देवी अहिल्या बाई होल्कर

लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती पर विशेष

यूं ही नही बनी रानी से मां और फिर देवी अहिल्या बाई होल्कर

दूरदर्शी मां अहिल्या ने शुरु की विधवा पेंशन,नारी सशक्तिकरण की सशक्त हस्ताक्षर

भोपाल

आसान नही होता सत्ता के कठोर अपरिहार्य चलन को ढकेल कर, ममता को बरकरार रखते हुए सामाजिक रुढियों को तोड पाना। बात जब सदियों के काबिज धर्म और पारिवारिवारिक रस्मों और दौर को बदलने की हो तो अच्छे से अच्छे रणनीतिकार, राजनितज्ञ भी विरोध के डर से हिम्मत नही जुटा पाते है। इस रानी की न्याय प्रियता, शासन संचालन और धार्मिक कार्यों घाटों के निर्माण पर बहुत कछ लिखा गया। लेकिन हम बात करके देवी अहिल्या के नारी उत्थान की दिशा ने किए गए दूरदर्शी कार्यों की।

लेकिन होल्कर घराने की बहु रानी अहिल्या बाई होल्कर – महिला सेना का गठन करने वाली उस दौर की वे शायद प्रथम ही शासक थी। इतना ही नही युद्ध में मारे गए सैनिकों की विधवाओं को सामाजिक और आर्थिक रुप से सक्षम बनाने की पहल उन्होंने ही की। देश में पहली बार विधवा पेंशन की शुरुआत हुई। यही वजह है कि उनकी आयु भले ही 70 वर्ष रही हो लेकिन कई पीढियों को, दशकों तक चार सदी बीत जाने के बावजूद भी रानी अहिल्या आज भी प्रासंगिक है।

इतना ही नही, पाखंडी धर्मवेताओं के विरोध को अकाट्य तर्कों, संयम तो कभी कडक निर्णय ले चुनौति देने से भी नही चुकी रानी अहिल्या। और इस तरह समाज के बडे वर्ग को महिला शिक्षा का अधिकार दिलवाया । कानून को पालन करवाने में महज कडक रुख नही अपनाया वरन ऐसे मानवीयता को प्राथिमकता देते हुए नए कानूनों की ईबारत लिखी। जो आज भी अनुकरणीय है। मसलन, विधवा संपति जप्त होने के कानून को समाप्त किया, विधवा पेंशन लागू की, सती प्रथा को समाप्त किया और महिलाओं के रोजगार की चिंता कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया।

उनके द्वारा स्थापित माहेश्वरी साड़ी का उद्योग आज भी कई परिवारों की रोजी रोटी है। खासकर महिलाएं इसे बखूबी चला रही है। जहां तक बात है पेंशन की तो उस समय यह कानून था कि, अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपनी पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया।

महिलाओं के उत्थान के लिए और लड़कियों को अच्छी शिक्षा के साथ रोजगार मिले इसके लिए भी काफी कार्य किए। महाराष्ट्र के चौंडी (वर्तमान में हमदनगर जिले) गांव के एक साधारण परिवार में अहिल्या का में हुआ था। इस छोटी सी बालिका ने बडे बडे योद्धाओं को धूल चटाई। लेकिन जनता के प्रति राजकाज की कठोरता को कभी हावी नही होने दिया। मां नाम है संपूर्णता, समर्पण और बगैर भेदभाव किए बच्चों के खातिर खतरे मौल लेने का । भले ही अहिल्या ने मालवा प्रांत की सूबेदारी का रसूख और रुतबा पाया लेकिन अपने अंदर के ममत्व को जनता के खातिर खोल कर रख दिया। निजी जीवन के मृत्यु तुल्य दर्द, जब पति खांडेराव होल्कर की असामयिक मृत्यु हुई हो महज 19 वर्ष की उम्र में ही वे विधवा हो जाना या फिर पुत्र का उम्मीद न उतरना, का असर रानी अहिल्या ने कभी अपने शासन संचालन में नही किया।

सन् 1766 ई। में वीरवर ससुर मल्हारराव भी चल बसे। अहिल्याबाई होल्कर के जीवन से एक महान साया उठ गया। और इस तरह उन्हें अकेले शासन की बागडोर संभालनी पड़ी। एक साध्वी की भांति राजवाड़ा स्थित गद्दी पर निर्विकार भाव से संचालन किया। जिस बात को धोतक है शिवलिंग को राजगद्दी पर विराजित कर राज्य की कारवाई करना न कि खुद उस गद्दी पर बैठना। जहां तक हो सका शक्तिशाली अहिल्या बाई ने युद्ध के‌बजाय सुलह को तवज्जो दी। उनके अनुसार जीत किसी भी हो, उजड़ता एक नारी का घर ही है। राजा राघोवा पेशवा ने युद्ध का इरादा कर सेना को मालवा पर खड़ा कर दिया। इस युद्ध का समाधान अहिल्याबाई ने मात्र एक पत्र से ही कर दिया। इस पत्र में महारानी ने लिखा था कि ‘मेरे पूर्वजों के बनाए और संरक्षित किए राज्य को हड़पने का सपना राघोबा आप मत देखिए। अगर आप आक्रमण के लिए आमादा हैं तो आइए, द्वार खोलती हूं। मेरी स्त्रियों की सेना आपका वीरता से सामना करने को तैयार खड़ी हैं। अब आप सोचिए। आप को हार मिली तो संसार क्या कहेगा, राघोबा औरतों के हाथों हार गया। अगर आप जीत भी गए तो आपके चारण और भाट आपकी प्रशंसा में क्या गाएंगे? राघोवा सेना लेकर आया, एक विधवा और पुत्र शोक में आकुल एक महिला को हराने ताकि अपना लालच पूरा कर सके। पेशवाई किसे मुंह दिखाएगी?’ इतना जानकर पेशवा ने अपना इरादा बदल दिया। लेकिन जब बहुत आवश्यक हुआ तो तीरंदाज और तलवार बाजी में के ई योद्धाओं को मात देने वाली देवी अहिल्या ने मालवा की जनता के खातिर अपनी महिला सेना के साथ, कई युद्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने लखेरी, मंदसौर और पानीपत के युद्धों में मराठा सेना का नेतृत्व किया। 1793 में लखेरी के युद्ध में जीत हासिल की।

मंदसौर का युद्ध: अहिल्याबाई ने मंदसौर के युद्ध में भी मराठा सेना का नेतृत्व किया और इस युद्ध में भी सफलता प्राप्त की। मराठा शासिका अहिल्याबाई ने पानीपत के युद्ध में भी मराठा सेना का नेतृत्व किया। जनता का हित, युद्ध को अपनी चतुराई से तो कभी शौर्य से टाल कर अनगिनत माताओं की कोख और कई सुहागनों के सिंदूर मिटने से बचा लिया।

उनके शांत और शौर्य से ओतप्रोत जीवन का प्रतिबिंब महेश्वर का किला आज भी जब चांदनी में नहाता है तो दूर दूर से पर्यटकों का मन मोह लेता है। एक अलग ही तरह का सुकुन महसूस करते है आंगुतक । इस किले के सामने अतिसुंदर शांत लेकिन चंचल मां नर्मदा की लहरे – मां अहिल्या के सकारात्मकता से भरे विचारों और कार्यों की कहानी बयां करती है। यही वजह है शायद निमाड जहां के ग्रीष्मकाल के दिन रात भयंकर गर्मी के लिए जाने जाते है, तापमान 45 डिग्रीतक छू जाता है लेकिन इसके बावजूद लोग दूर दूर के शहरों गर्मी में इस किले के सामने मां नर्मदा के तट सुकुन पाते है क्योंकि वहां रानी अहिल्या की नही मां अहिल्या के मातृत्व भाव की ठंडक है, सकारात्मकता का संचार हो रहा है।

· भावना अपराजिता शुक्ला

 

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