लोकसभा चुनाव 2019 में नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार बीजेपी ने प्रचंड जनादेश के साथ सत्ता में वापसी की है. बीजेपी ने अपने सियासी इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें जीतने का रिकॉर्ड बनाया है. राहुल गांधी के नेतृत्व में उतरी कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से धराशायी हो गई. ‘हाथी’ के सहारे देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने के मंसूबे से उतरे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के अरमानों पर बीजेपी ने पानी फेर दिया है.
ऐसे में सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या अखिलेश यादव भी चौधरी अजित सिंह की तरह राजनीतिक संकट के दहलीज पर खड़े हो गए हैं?
उत्तर प्रदेश में सपा ने 2012 में प्रचंड जीत के साथ सत्ता में वापसी की थी तो मुलायम सिंह यादव ने अपनी विरासत का ताज अपने बेटे अखिलेश यादव के सिर पहनाया था. लेकिन अखिलेश इस राजनीतिक विरासत को बरकरार रखने में लगातार फेल हो रहे हैं.
मोदी-शाह की रणनीति के खिलाफ अखिलेश कारगर तरीका नहीं खोज पाए हैं. इसी का नतीजा है कि एक के बाद एक लगातार 3 चुनाव में सपा को करारी हार का सामना करना पड़ा.
अखिलेश यादव के नेतृत्व सपा पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव के रण में उतरी थी, सूबे की सत्ता में रहते हुए भी वह महज 5 सीट ही जीता सके थे. ये सभी सीटें मुलायम कुनबे की रहीं. इसके बाद परिवार में कलह हुई और अखिलेश यादव ने अपने पिता और चाचा के खिलाफ बगावत का झंडा उठाया और पार्टी की बागडोर अपने हाथों में ले ली.
सूबे की सत्ता में वापसी के लिए अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरे. अखिलेश यादव-राहुल गांधी की जोड़ी को यूपी के लड़के का नारा दिया गया था. सूबे में दोनों नेताओं ने जमकर प्रचार किया, लेकिन नतीजा यह रहा कि अखिलेश यादव को सत्ता गंवानी पड़ी. यही नहीं सपा के अब तक के राजनीतिक करियर में सबसे कम 47 विधानसभा सीटें मिलीं. इसके बाद अखिलेश यादव यूपी की गोरखपुर और फूलपुर सीट पर बसपा के समर्थन से जीतने में कामयाब रहे.
उपचुनाव में मिली जीत के फॉर्मूले के तहत अखिलेश यादव मायावती के साथ गठबंधन कर लोकसभा चुनाव के रण में उतरे. गठबंधन के तहत बसपा से कम सीटें लेकर सपा चुनावी रण में उतरी और महज 5 सीटें ही जीत सकी. सपा का 2014 से 4 फीसदी वोट कम हो गया. इसके अलावा मुलायम कुनबे के 3 सदस्य चुनाव हार गए.
दिलचस्प बात यह है कि 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में सूबे में बीजेपी एक फॉर्मूले को लेकर चुनावी जंग फतह करती रही, लेकिन अखिलेश इसकी काट नहीं तलाश पाए. इसके अलावा उन्होंने जितने भी राजनीतिक प्रयोग किए वह भी फेल रहा, चाहे राहुल गांधी के साथ गठबंधन हो या फिर मायावती के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला.
लोकसभा चुनाव के नतीजे बाद बाद अखिलेश और राहुल गांधी के सियासी करियर को राजनीतिक नजरिए से देखें तो राहुल गांधी से कहीं ज्याद संकट में अखिलेश यादव हैं. कांग्रेस पार्टी की 5 राज्यों में सरकार है और पार्टी के पूरे देश में कार्यकर्ता और जनाधार है. अखिलेश की पार्टी सिर्फ यूपी में है और संकट बड़ा है.
अखिलेश यादव के पिता और समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने पहले ही कहा था कि बसपा से गठबंधन सपा के हित में नहीं है. अगर सीटों के लिहाज से देखें तो उनकी यह बात सच साबित हुई क्योंकि सपा उतनी ही सीटें यानी 5 सीटें ही जीत पाई जितनी उसने 2014 में जीती थीं. लेकिन डिंपल समेत उनके कुनबे के कई लोग हार गए. वहीं मायावती को इसका सबसे ज्यादा फायदा मिला क्योंकि उनकी पार्टी बसपा यूपी में जीरो से 10 पर पहुंच गईं.
वहीं राहुल गांधी भले ही अमेठी से चुनाव हार गए हों लेकिन केरल के वायनाड से बड़े अंतर से जीतने में सफल रहे. इससे उनकी स्वीकायर्ता भी बढ़ी है. राहुल गांधी की एक सफलता यह भी मानी जा रही है कि वह इस चुनाव को मोदी VS राहुल बनाने में सफल रहे. राहुल ने पूरे चुनाव में मर्यादा का भी ख्याल रखा और कांग्रेस के जिन नेताओं ने गलतबयानी की उन्हें माफी मांगने के लिए भी कहा. राहुल ने पूरे चुनाव में मोदी से ज्यादा रैलियां और रोड शो किए. राहुल ने न्याय का नारा दिया, रोजगार की बात की और केंद्र सरकार पर गंभीर सवाल करते रहे.
वहीं मायावती से गठबंधन करने के बाद अखिलेश हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जब मोदी की कई रैलियां हो चुकी थीं तब जाकर सपा-बसपा की संयुक्त रैली देवबंद में हुई. राहुल ने अकेले जहां यूपी में कई रैलियां और रोड शो किए वहीं अखिलेश-माया केवल एक दर्जन संयुक्त रैलियां ही कर पाए. राहुल अखिलेश और माया पर हमला करने से बचते रहे, वहीं अखिलेश कांग्रेस को हर रैली में निशाना बनाते रहे. कांग्रेस ने यहां तक कह दिया कि उनके उम्मीदवार जीतेंगे या बीजेपी का वोट काटकर गठबंधन को जिताएंगे. लेकिन गठबंधन की तरफ से उन्हें कोई खास राहत नहीं मिली.
कुल मिलाकर 2019 के चुनाव में अखिलेश और समाजवादी पार्टी की स्थिति ज्यादा खराब हुई है. राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश करके हार की नैतिक जिम्मेदारी ली है वहीं, अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के सभी प्रवक्ताओं को हटाकर यह जताने का प्रयास किया है पार्टी की बातें सार्वजनिक मंचों पर ठीक से नहीं रखी गईं इसलिए ऐसी हार हुई है.