वेद तथा सनातनी ग्रंथों से मानव जीवन परिष्कृत होता है और सदाचार तथा वैदिक धर्म का ज्ञान मानव धर्मार्थ की खोज में एक यज्ञ की तरह है।
भारतीय ऋग्वेद अथर्ववेद और अनेक वेदों में इतनी शक्ति ऊर्जा और अर्थ छुपा हुआ है कि उसका अध्ययन मनन और चिंतन करने से भारत विश्व गुरु बनने की क्षमता रखता है। भारत की योग विद्या पूरे विश्व में अमेरिका सहित यूरोप में अपनाई गई है। यह अलग बात है कि कुछ देशों के प्रशासको द्वारा अपनी सनक एवं विस्तार वादी मानसिकता के कारण यूक्रेन में युद्ध की स्थिति बन कर पूरे विश्व में वैश्विक युद्ध की संभावनाएं बन गई हैं। इसका हल मी भारतीय संस्कृति संस्कारों में छुपा हुआ है उसे बस अपनाने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति आज महावीर तथा बुध के पूरे विश्व में करोड़ों अनुयाई हैं, और दोनों ने श्रम तथा सार्थकता को जीवन में अपनाने को ही महत्व दिया था। सफलता उनके लिए मिथ्या के बराबर ही थी।
गुरु नानक देव द्वारा प्रतिपादित सरबत दा भला, हो या महात्मा गांधी का सर्वोदय, ईसा मसीह की करुणा, मोहम्मद साहब,
टैगोर का मानवतावाद या नेहरू का अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रवाद जीवन के श्रम तथा सार्थकता की खोज में बड़े महत्वपूर्ण उदाहरण हैl व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर देखा जाए तो महज रोजगार की तलाश विवाह संतानोत्पत्ति,बच्चों का भरण पोषण तथा सेवानिवृत्ति ही जीवन नहीं है। इसमें सामुदायिक श्रम और सार्थकता का समावेश होना समीचीन हैl हालांकि इस बात में कोई दो मत नहीं कि पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वहन समाजिक मूलभूत आवश्यकता है। पर इसके साथ साथ कुछ ऐसा सार्थक श्रम किया जाना चाहिए जो न केवल आत्मिक संतोष का अनुभव प्रदान करें, बल्कि सामाजिक हित और वैश्विक शांति में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दें, और समाज को दिशा देने वाली कोई परिणति समाज के सम्मुख प्रकट हो।
जिससे समाज के लोगों का जीवन परिष्कृत हो। इसी संदर्भ में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खान,दयानंद सरस्वती, विवेकानंद ने हमेशा सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अभियान चलाकर जीवन में श्रम तथा सार्थकता का महत्व बढ़ाकर सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया था।
यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि जीवन की असली खोज श्रम सार्थकता की उपलब्धि ना होती और तथाकथित सफलता के शिखर पर व्यक्ति बैठ जाता है और शांत हो जाता,तो सफलता के शिखर पर बैठे बिलगेट, वारेन बुफेट जैसे लोग अपनी अकूत संपत्ति का बड़ा भाग सामाजिक उद्देश्य के लिए दान नहीं करते। सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आंदोलन चलाकर जल तथा पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करते। कैलाश सत्यार्थी बचपन बचाओ आंदोलन के माध्यम से बाल संरक्षण के अधिकारों का झंडा बुलंद नहीं कर पाते। थॉमस अल्वा एडिसन, आइंस्टीन,मैडम क्यूरी और राइट बंधुओं के श्रम और सार्थकता के प्रयास में ही सफलता का परचम फैलाया है। पर इन सब के पीछे उनकी असाध्य मेहनत और दिमागी सार्थकता ही मुख्य कारक बन कर उन्हें उत्प्रेरित करती रहे है।
पर दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि जीवन में सार्थकता की खोज सफलता के अभाव में संभव नहीं है। क्योंकि श्रम और सार्थकता का महत्व तभी तक है जब तक वह सफल ना हो,परंतु सफलता ही मनुष्य की अंतिम परिणति नहीं होनी चाहिए। अन्यथा जीवन में मानवीय मूल्यों का महत्व नगण्य में होने की संभावना बनी रहती है। अतः श्रम मेहनत और सार्थकता समेकित रूप से मिलकर एक बड़ी सफलता को जन्म देते हैं। श्रम तथा सार्थकता तभी प्राप्त होती है, जब सफलता का आधार प्राप्त हो जाए। पर मूलत सफल होना ही पर्याप्त नहीं है। और जीवन की असली खोज निरंतर श्रम तथा सार्थकता है। केवल सफलता आपको अस्थाई तथा तत्कालिक मानसिक शारीरिक सुख प्रदान कर सकती है। पर चिरस्थाई तथा आत्मिक संतोष के लिए उसमें श्रम तथा सार्थकता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक होता है। अगर वह समाज के लिए एक आदर्श तथा उपयोगी मार्गदर्शक बन सकता है।
इसलिए जीवन में केवल सफलता के पीछे ना जाकर श्रम, मेहनत और सार्थकता अत्यंत आवश्यक पहलू हैं।
*-संजीव ठाकुर*
संयोजक, चिंतक, लेखक, टिप्पणी कार, रायपुर छत्तीसगढ़,
मो- 9009415415