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‘मियां- तियां या ‘पाकिस्तानी’ कहना अपराध नहीं: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली
 सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समुदाय से जुड़ी टिप्पणी को लेकर अहम बात कही। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति को 'मियां-तियां' और 'पाकिस्तानी' कहना गलत होगा, लेकिन इससे उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का अपराध नहीं माना जाएगा। अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 298 (जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के इरादे से शब्द आदि बोलना) के तहत आरोप से एक व्यक्ति को मुक्त कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता पर उसे 'मियां-तियां' और 'पाकिस्तानी' कहकर उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप है। अदालत ने कहा कि निस्संदेह, दिए गए कथन गलत है। हालाँकि, इससे याचिकाकर्ता की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुचती है।

झारखंड हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती

जस्टिस बी वी नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की बेंच झारखंड उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ दायर अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता को आरोप मुक्त करने से इनकार कर दिया गया था। मामला उप-विभागीय कार्यालय, चास में एक उर्दू अनुवादक और कार्यवाहक क्लर्क (सूचना का अधिकार) की तरफ से दर्ज एफआईआर से जुड़ा था।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि जब वह आरटीआई आवेदन के संबंध में जानकारी देने के लिए अपीलकर्ता से मिलने गया, तो आरोपी ने उसके धर्म का हवाला देकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया। साथ ही आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन को रोकने के लिए आपराधिक बल का इस्तेमाल किया।

अदालत ने 11 फरवरी को दिए अपने फैसले में कहा, "निस्संदेह, दिए गए बयान सुनने में ठीक नहीं लगते हैं। लेकिन, इससे सूचना देने वाले की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती। इसलिए, हमारा मानना है कि अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 298 के तहत आरोपमुक्त किया जाना चाहिए।"

शिकायतकर्ता, जो एक उर्दू अनुवादक और सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत कार्यवाहक क्लर्क है, ने अपीलीय प्राधिकारी के आदेश के बाद आरोपी सिंह को व्यक्तिगत रूप से कुछ जानकारी दी थी। सिंह ने शुरू में दस्तावेज स्वीकार करने में अनिच्छा दिखाई, लेकिन अंततः उन्होंने दस्तावेज स्वीकार कर लिए, लेकिन कथित तौर पर उन्होंने शिकायतकर्ता के धर्म का हवाला देते हुए उसे अपशब्द कहे।

यह भी आरोप लगाया गया कि सिंह ने शिकायतकर्ता को डराने और लोक सेवक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोकने के इरादे से उसके खिलाफ आपराधिक बल का प्रयोग किया। इसके परिणामस्वरूप सिंह के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई, जिनमें धारा 298 (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना), 504 (शांति भंग करने के लिए जानबूझकर अपमान करना), 506 (आपराधिक धमकी), 353 (लोक सेवक को कर्तव्य से रोकने के लिए हमला या आपराधिक बल का प्रयोग) और 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) शामिल हैं।

मजिस्ट्रेट ने मामले की समीक्षा करते हुए धारा 353, 298 और 504 के तहत आरोप तय किए, जबकि साक्ष्य के अभाव में धारा 323 और 506 के तहत आरोपों को खारिज कर दिया। सिंह की आरोपमुक्ति की याचिका को पहले सत्र न्यायालय और बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, जिसके बाद उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा।

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 353 के तहत आरोप को कायम रखने के लिए हमले या बल प्रयोग का कोई सबूत नहीं है। अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने इस प्रावधान के तहत आरोपी को आरोपमुक्त न करके गलती की है।

शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 504 भी लागू नहीं होती, क्योंकि सिंह की ओर से ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया, जिससे शांति भंग हो सकती हो। धारा 298 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सिंह की टिप्पणी अनुचित थी, लेकिन आईपीसी के तहत धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए कानूनी तौर पर पर्याप्त नहीं थी। नतीजतन, सिंह को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।

आईपीसी 504 के तहत आरोप नहीं लगा सकते

आखिरकार, अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 353, 298 और 504 के तहत आरोप तय किए गए। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि शिकायत में अपराध के तत्व नहीं बताए गए थे। कोर्ट ने कहा कि जाहिर है, अपीलकर्ता ने धारा 353 आईपीसी को आकर्षित करने के लिए कोई हमला या बल का प्रयोग नहीं किया था।

कोर्ट ने आगे कहा कि अपीलकर्ता पर धारा 504 आईपीसी के तहत आरोप नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि उसकी ओर से ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया जिससे शांति भंग हो सकती हो।

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