
पूर्व-वैदिक काल में वर्णों का विभाजन कर्म के आधार पर किया जाता था। उत्तर वैदिक काल आते आते यह विभाजन कर्म की जगह वंश के आधार पर किया जाने लगा और फिर गुप्ता काल के बाद से अब तक यह विभाजन वंश के आधार पर ही किया जा रहा है। कहीं न कहीं वंश के आधार पर समाज में ऊंचा या नीचा बताया जाना समय के साथ साथ उंच-नीच और छुआछूत को बढ़ावा देने लगा और जातिगत भेदभाव से अस्पृश्यता या छुआछूत का जन्म हुआ जोकि भारत की कुछ प्रमुख समस्याओं में से एक रही है। छुआछूत को लेकर लोगों के मन में ये अवधारणा है कि किसी तथाकथित निम्न जाति के द्वारा ऊंची जाति वाले व्यक्ति को छू लेने से ऊंची जाति वाला व्यक्ति दूषित हो जायेगा। अस्पृश्यता के कारण निम्न जाति के कहलाने वालों को कभी मंदिरों में प्रवेश लेने से निषेध कर दिया जाता है तो कभी कुएं से पानी भरने पर प्रताड़ना व बदसलूकी का शिकार होना पड़ता है।
ऐसी ही एक घटना हाल ही में राजस्थान के जालौर जिले से सामने आयी है जहाँ पता चला है कि मटका छू लेने पर एक दलित छात्र इंद्र को हेडमास्टर ने इतना पीटा कि उसकी मृत्यु हो गई। बहराल इस घटना में दुसरे कुछ पक्ष भी हैं जिनका कहना है कि स्कूल में मटका था ही नहीं। एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि इंद्र एवं एक और बच्चा किताब को लेकर लड़ रहे थे जिस वजह से हेडमास्टर छैल सिंह ने दोनों को चांटा मार दिया था। हालाँकि, अभी इस बात की पुष्टि हुई नहीं है कि बच्चे की हत्या का कारण क्या था। अभी जांच चल रही है परन्तु ऐसी और भी घटनाएं पिछले सालों में घटित होती आयी हैं जहाँ जात-पात की प्रथा को बढ़ावा दिया गया और दलित वर्ग के लोगों को उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ा। जन्माष्टमी की रात को भी मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में 15 साल की दलित बच्ची के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। यह एक मंदिर के पास चल रहे मटकी फोड़ कार्यक्रम को देखने गई थी मगर यहाँ 9 लोगों द्वारा इसे मारा पीटा गया और उनमे से कुछ महिलाओं ने उससे यह कहा कि ये नीची जाति की लड़की हमारे कार्यक्रम में कैसे आ गई। और यही नहीं, लोगों ने उसे जान से मारने की धमकी तक दी। बालिका को लात घूसों से पिटने के कारण रीढ़ की हड्डी और पसली में कई गंभीर चोटें आई हैं मगर फिर भी वो किसी तरह वहां से बच निकली। लेकिन 26 सितम्बर 2019 की सुबह मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में 10 और 11 साल के दो दलित बच्चों की लाठी से मार मार कर हत्या कर दी गई थी। इनमें से एक बच्ची का नाम रौशनी था। इस बच्ची का डॉक्टर बनने का सपना था जो अब अधूरा रह गया। इस बच्ची के परिवार ने बताया कि रौशनी को स्कूल में जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता था और लोग उसका मज़ाक भी उड़ाते थे जिस वजह से उसने स्कूल जाना छोड़ दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि दोनों बच्चों के हत्यारे ने पहले भी रौशनी के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी और शौच करते में उनकी फोटो लेने की कोशिश भी की थी। एक और घटना तमिल नाडु के तिरूप्पाचेत्ती जिले से सामने आयी थी जहाँ देर रात को तीन अनुसूचित जाति के पुरुषों की हत्या कर दी गई। इनकी हत्या करने की वजह हमारे समाज की निम्न सोच को दर्शाती है क्योंकि इन तीनो पुरुषों की हत्या करने की वजह ये थी कि वे मंदिर में प्रार्थना कर रहे थे।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि बिना किसी कारण कोई भी व्यक्ति के साथ सिर्फ उस जाति में जन्म लेने से उसके साथ भेदभाव न हो और यदि कोई ऐसा करता है तो उसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। छुआछूत ख़त्म करने हेतु संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ साथ सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 है जिसके अंतर्गत ऐसे सभी कार्यों को अपराध घोषित किया जाता है जो छुआछूत से संबंधित हैं एवं दंडनीय है। इन सभी कानूनों और व्यवस्थाओं के मौजूब होने के वाबजूद इस तरह जात-पात, उंच-नीच को लेकार क्रूरता और हैवानियत भरे कारनामों के किस्सों को देख कर मन में शंकाएं पैदा होती हैं। इक्कीसवी सदी में जी रहे भारत वासी एक होकर विकासवादी सोच की ओर कब बढ़ सकेंगे और भारत का सपना कब पूरा हो सकेगा?
ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएं सदियों से चलती आ रही वर्ण प्रथा को दर्शाती हैं जो यह सवाल पैदा करती हैं कि क्या यही वो भारत है जहाँ लोग क़ानून को अपने हाथों में ले लेते हैं और जो चाहे वो करते हैं। आज भी ऐसे बहुत सारे गाँव हैं जहाँ जात-पात, उंच-नीच की प्रथा को मान्यता दी जाती है और वंचित वर्ग के लोगों के साथ अत्याचार एवं उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के बावजूद आज भी दलितों और वंचित वर्गों पर हो रहे अत्याचारों से मन में अशांति महसूस होती है और यह सवाल आता है कि आखिर क्यों भेदभाव और अस्पृश्यता ख़तम नहीं हो सकी है। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने अपने समाज के नैतिक मूल्यों का कभी ठीक से पालन ही नहीं किया; जात-पात व धर्म-अधर्म की रूढ़िवादी प्रथाओं में हम कुछ इस तरह सिमट कर रह गए कि हमारा अस्तित्व ब्राह्मण क्षत्रीय वैश्य शूद्र तक ही सीमित रह गया और हमने कभी एक अच्छा इंसान बनने की ओर प्रयास ही नहीं किया। या फिर ऐसा कहा जाए कि हमारे अंदर अपने संविधान की समझ विकसित नहीं हो पाई? मगर ये कहना शायद गलत होगा क्योंकि इंसान को इंसानियत संविधान नहीं बल्कि उसके खुद के नैतिक मूल्य सिखाते हैँ।
समाज के भीतर यदि इस तरह की असमानताएं बढ़ती रहीं तो हम समाज को कभी मजबूत नहीं रख सकेंगे, इसे मजबूती देने के लिए पीछे छूट गए उन सभी लोगों को मुख्य धारा में शामिल करने की ज़रूरत है जिन्हें आवाज़ नहीं मिली या जिनकी आवाज़ सब तक पहुंची नहीं। हमे ज़रूरत है कि इमारत की हर एक मंजिल उतनी ही मजबूत हो जितनी की उससे ऊपर या नीचे वाली मंजिल क्यूंकि इमारत की एक भी मंजिल के कमज़ोर हो जाने से पूरे के पूरे ढाँचे पर खतरा मंडराने लगता है।
सलोनी शर्मा
छात्रा – माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रिय पत्रकारिता विश्विद्यालय