“मुकेश तिवारी” वरिष्ठ पत्रकार
बिहार के चुनाव पर सबकी नजर है लेकिन मध्य प्रदेश का उप चुनाव भी कम खास नहीं है।पहली बार सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए उपचुनाव के कुछ ज्यादा मायने हैं।
चुनाव 28 सीटों पर हो रहा है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ,केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का दम फूला हुआ है। चौहान और सिंधिया ने कोरोना का अस्पताल में इलाज कराने के बावजूद प्रतिदिन कम से कम तीन सभाएं की हैं। प्रचार के लिए चौहान की भूख को इसी से समझा जा सकता है कि जब मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कोरोना की वजह से सभाओं पर कुछ पाबंदियां लगाईं तो वह इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक चले गए। शिवराज सिंह चौहान को सरकार बचाने के लिए कम से कम 8 सीटें चाहिए। कमलनाथ को फिर से सरकार बनाने के लिए सभी 28 सीटें चाहिए। केंद्रीय मंत्री तोमर के लिए यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण हो गया कि उनके लोकसभा क्षेत्र मुरैना की पांच विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहा है।सिंधिया के लिए तो यह चुनाव किसी बड़ी परीक्षा से कम नहीं है। चुनाव नहीं जीतने पर उनके साथ भाजपा में आए आधा दर्जन से ज्यादा नेताओं को मंत्री पद छोड़ना पड़ेगा। छह महीने में चुनाव नहीं जीतने की वजह से उनके गुट के दो नेताओं तुलसी सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत को हाल ही में मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा है।
वैसे ही नए दल भाजपा में सिंधिया के समर्थकों को अपनी जगह बनाने के लिए कुछ ज्यादा ही मशक्कत करनी पड़ रही है।अभी तक भाजपा ने उनके साथ कांग्रेस से आए किसी नेता को राष्ट्रीय से लेकर जिले की कार्यकारिणी में शामिल नहीं किया है। जब से भाजपा ने चुनाव के पोस्टर से सिंधिया को हटाया है और सिर्फ चौहान और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा को रखा है तब से उनके समर्थक अपने भविष्य को लेकर अधिक आशंकित हो गए हैं। सिंधिया भी महसूस कर रहे हैं कि भाजपा और चौहान का काम तो 8 सीटों से चल जाएगा लेकिन अगर उनके गुट के ज्यादा नेता जीतकर नहीं आए तो उन्हें खुद को भाजपा में अपेक्षित सम्मान नहीं मिलेगा। ये ही वजह है कि उन्होंने अब चुनाव में अपने उम्मीदवारों के लिए सिंधिया राजपरिवार का वास्ता देकर वोट मांगने शुरू कर दिए हैं। वेशक कांग्रेस का प्रचार भाजपा के मुकाबले प्रदर्शन में कमजोर हो लेकिन भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे सिंधिया समर्थक नेता ओं को यह चुनाव आसान नहीं लग रहा। बात दरअसल यह है कि कांग्रेस मुद्दों की बजाय सिंधिया के साथ कांग्रेस की सरकार गिराने वाले पूर्व विधायकों को कथित रूप से ‘गद्दार और बिकाऊ’ बता कर चुनाव लड़ रही है।ऐसा कहा जाता है कि चुनावी सर्वे में इसका असर होने के चलते चार विधायकों ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के खिलाफ 10-10 करोड़ रुपए का मानहानि का केस किया है। उपचुनाव राजनीतिक दृष्टि से कितना ही महत्व क्यों न रखता हो लेकिन यह असल मुद्दों से दूर है।अगर राष्ट्रीय मुद्दों की बात करें तो नए कृषि कानूनों का इस चुनाव में कोई नाम नहीं ले रहा।यह आश्चर्य का विषय हो सकता है लेकिन यह सच्चाई है कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी कृषि कानूनों का चुनाव में नाम तक नहीं ले रहे हैं।ऐसा भी नहीं है कि चुनाव ग्रामीण क्षेत्र की सीटों पर नहीं हो रहे हों।जिन 28 सीटों पर चुनाव हो रहा है,उनमें अधिकतर सीट ग्रामीण ही हैं और ज्यादा वोटर किसान ही है।प्रादेशिक मुद्दे भी गौण हैं। मसलन राज्य लगभग सवा दो लाख करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा है,फिर भी सरकार और विपक्ष दोनों ने ना पूरी होने वाली घोषणाएं और वादे कर दिए हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अकेले चुनाव क्षेत्र में 23 हजार करोड़ रुपए की घोषणाएं और उद्घाटन किए हैं। वहीं कांग्रेस ने उन किसानों के दो लाख रुपए तक के कर्ज माफ करने का वादा किया है जिनका वह सरकार में रहते हुए नहीं कर पाई थी। ऐसा अनुमान है कि इससे सरकारी खजाने पर 30 हजार करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा।इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने कोरोना से मरने वाले व्यक्तियों के परिजनों को पेंशन देने और 100 रुपए में 100 यूनिट बिजली का भी वादा किया है।
सरकार रोजमर्रा के खर्च चलाने के लिए लगातार कर्ज ले रही है।सरकारी दफ्तरों के खर्च और कर्मचारियों के वेतन निकालने के बाद बमश्किल 30% रकम भी नहीं बचती कि कर्ज का ब्याज चुकाकर अन्य काम किए जा सकें। राज्य के अधिकांश निगम,मंडल,प्राधिकरण और नगर निगम और पालिकाएं घाटे में हैं।उनके पास विकास कार्यों के लिए धन नहीं है। देश के प्रमुख समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर भी कहते हैं दोनों प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा अपनी खामियां छिपाने के लिए चुनाव असल मुद्दों की बजाय बिकाऊ,टिकाऊ, आइटम जैसी शब्दावली पर लड़ रहे हैं। वह कहते हैं कि जिस चंबल क्षेत्र में उपचुनाव की सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव हो रहा है वहां बेरोजगारी प्रमुख समस्या है,युवाओं के रोजगार के लिए माता-पिता अपनी कृषि भूमि बेचने को विवश हैं। सरसों की अच्छी खेती के बावजूद किसान को लाभप्रद मूल्य नहीं मिल रहा है। बीहड़ वाले चंबल में राजनीतिक चेतना के लिए सक्रिय रहने वाले रघु ठाकुर कहते हैं कि डाकुओं से मुक्त हुआ चंबल अब प्राकृतिक संसाधनों को लूटने वाले राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त डाकुओं यानी ठेकेदारों द्वारा लूटा जा रहा है। कुछ हद तक उनकी बात सही भी है चंबल नदी रेत के लुटेरों से संरक्षण मांग रही है लेकिन कोई उम्मीदवार उसकी पुकार नहीं सुन रहा। जलपुरुष राजेंद्र सिंह कहते हैं कि रेत का अवैध उत्खनन चंबल नदी को कितना नुकसान पहुंचा रहा है,यह बात राजनीतिक दलों और नेताओं को समझ में नहीं आएगी।उनकी पीड़ा इसलिए भी है कि चुनाव से ठीक पहले उन्होंने चंबल में जाकर राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस विषय पर समझाने की काफी कोशिश की थी।
(लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं )